बर्फ / राजीव रंजन
न जाने यह मौसम का कहर है,
या मानवों के कृत्यों का असर है।
सर्द हवाएँ आजकल सब कुछ जमा रही।
चारों तरफ सफेद बर्फ की चादर बिछा रही।
बर्फ के नीचे दबकर पेड़ों की कोमल-
कोमल पत्तियाँ आज दम तोड़ रहीं।
और बच रहा सिर्फ और सिर्फ ठूठ दरख्त।
खिलने की उत्कट आकांक्षा ले
कोमल कलियाँ भी इस बर्फ में
दब अपने प्राणों से हाथ धो रही।
हरी-हरी नन्हीं दूब भी क्रूर
बर्फ के कदमों तले कुचला
कर आज जान दे रही।
अब तो यह बर्फ हमारे घरों
के अन्दर भी जमने लगी है।
देख यह सब हमारी साँसे भी
हलक में अब अटकने लगी है।
हमने अपने आस-पास के वातावरण में
जाने-अनजाने न जाने कितने छेद कर दिए।
यह हमारे ही फैलाये प्रदूशण का प्रतिफल है।
अब तो यह बर्फ हमारे अन्दर के जीवन
को भी जमाने लगी है।
धीरे-धीरे यह इंसानों को जिंदा लाश
बनाने लगी है।
खुली आँखों से अब बस उस सूरज
का इंतजार है।
जो अपने आतप से इस सफेद मौत
सी ठंडी बर्फ को पिघला कर
मर रहे हमारे जीवन में नव-प्राण फूँके।
हरी दूब, कोमल पत्तियों एवं अधखिली
कलियों में भी नव-जीवन का संचार करे।
फिर से सूखे दरख्त को हरे पेड़ और
धरा को एक सुन्दर उपवन बना दे।
बस आज खुली आँखों से उसी
छिपे सूरज के उगने का इंतजार है।