भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बस्ता फ़ेंक के / गुलज़ार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बस्ता फ़ेंक के लोची भागा रोशनआरा बाग़ की जानिब
चिल्लाता : 'चल गुड्डी चल'
पक्के जामुन टपकेंगे'
 
आँगन की रस्सी से माँ ने कपड़े खोले
और तंदूर पे लाके टीन की चादर डाली

सारे दिन के सूखे पापड़
लच्छी ने लिपटा ई चादर
'बच गई रब्बा' किया कराया धुल जाना था'

ख़ैरु ने अपने खेतों की सूखी मिट्टी
झुर्रियों वाले हाथ में ले कर
भीगी-भीगी आँखों से फिर ऊपर देखा

झूम के फिर उट्ठे हैं बादल
टूट के फिर मेंह बरसेगा