बहुत ढेर नहीं / शहंशाह आलम
बहुत ढेर नहीं
पानी गिरे इतना कि
तर हो जाए पूरी धरती
यहां से वहां की
तर हो जाए स्त्री-पुरुष का प्रेम
तर हो जाएं नानी-दादी की छायाएं
केले का गाछ हो जाए तरो-ताज़ा बिलकुल
जामुन मीठा हो जाए भरपूर
अमरूद का स्वाद बढ़ जाए
तोते के वास्ते और आदमी के वास्ते
हमारी उम्मीदें भर जाएं वनस्पतियों से
दुख सहने की ताक़त आ जाए हममें
बहुत ढेर नहीं
पानी गिरे इतना कि
गायों को भैसों को
चूहों चीतों को
बेचैन नहीं होना पड़े गर्मी से
आदमियां को उकताना नहीं पड़े पसीने से
मुझे और आपको निर्वासित नहीं होना पड़े
एक स्थान से दूसरे स्थान
हमारे घरों का आंगन
हमारे पिछवाड़े का पेड़
हमारे आस पास की मिट्टी
हमारे पहाड़ जंगल नदी झील
और बिजली के खंभे
सब छेड़ें बारिश में जीवन-राग
तुझे भी प्यास से आत्मा तक हिलने की
ज़रूरत नहीं मेरे दोस्त
पानी से भरा-पूरा घड़ा
तुम्हारा ही तो है
जोकि है कुम्हार का दिया
एक प्राचीनतम उपहार
बहुत ढेर नहीं
पानी गिरे इतना कि
पिता की जुठायी रोटी और तरकारी
इस पूरी पृथ्वी के लिए अमरफल बन जाए।