बहुत याद आती है / सुदर्शन रत्नाकर
विदेश में रहने वाले एक मज़दूर की व्यथ-कथा
जब भी मैं, तपती दोपहरी में
चारकोल सने पाँवों से
चलता हूँ या
ऊँचाइयों पर टँगी
टूटी कड़ियों को जोड़ता हूँ
जहाँ नीचे झाँकने पर भी
रूह काँपती है,
गहरे कुओं में उतरता हूँ
ज़िंदगी का भार ढोने के लिए
ज़िंदगी से लड़ता हूँ,
तब मुझे मेरा बेटा याद आता है जो
अपनी भोली बातों से मुझे चेताता है।
अपना ध्यान रखना पापा
आपकी कमी महसूसता हूँ मैं,
बच्चे जब चलते हैं
अपने पापा के साथ
पकड़ कर उनका हाथ
मैं उन्हें चुपके से देखता हूँ
वे उनके मज़बूत कंधों पर झूलते हैं
तब मुझे आपकी बहुत याद आती है।
तुम तो दूर हो पापा
बतियाता हूँ माँ के संग,
कभी करता नहीं उन्हें तंग
पर पापा तुम जल्दी आना
मुझे बहुत याद आती है।
परिवार से दूर रह कर क़ीमत
जानता हूँ,
परिवार का क्या महत्त्व है
मानता हूँ,
जिसका बोझ अकेली पत्नी उठाती है
मेरे बिन हर कष्ट झेलती है,
दंश तन्हाई का सहती है
मेरे बूढ़े माँ-बाप को भी सम्भालती है
फिर भी खुश रहती है,
माथे पर शिकन नहीं लाती है।
पर उसके मन में एक डर
समाया रहता है,
"परिवार के लिए विदेश में रहते हो
अकेले ही कष्ट सहते हो"
पत्र लिखती है तो देती है हर बार ज्ञान
"देखोजी, तुम रखना अपना ध्यान
तुम हो तो है दुनिया
तुम बिन सब टूट जाएँगे
ज़िंदगी के सब रंग, बदरंग हो जाएँगे। "
चोट लगती है तो बूढ़ी माँ याद आती है
बचपन में ज़रा-सा गिर भी जाता था तो
माँ भाग कर आँचल में छुपा लेती थी
माथे को चूम कर मुझे बहलाती थी
सच में पाकर माँ का स्पर्श
भूल जाता था पीड़ा का दंश,
अब गिरता हूँ तो स्वयं ही उठता हूँ।
पत्नी का प्यार नहीं,
माँ का दुलार नहीं॥
बापू जब ख़त भेजते हैं
आँसुओं से शब्द भीगते हैं
" कंधे मेरे हो गए हैं शिथिल
बोझ उठा सकते नहीं
तेरे कंधों का सहारा है
चोटिल करना नहीं
इनके बिना गुज़ारा नहीं
मेरी दुआएँ तेरे साथ हैं
अब यही मेरे पास हैं। "
सब की बहुत याद आती है
पिता के कंधे नहीं,
बच्चों का मनुहार नहीं
अपनी धरती नहीं
अपना आसमान नहीं,
जीना इतना आसान नहीं।
पर मुझे जीना है उनके लिए
जिनके साथ बँधा है मेरा जीवन,
दूर रह कर आशाओं के दीप जलाने हैं,
उनकी मुस्कानें बनी रहें,
अपने जीवन की साँसें बचानी है।