बांसुरियाँ बेचता आदमी / मनोज शर्मा
बांस पर बंधे सरकंडों में
करीने से ठुंसी हैं बांसुरियाँ
और एक आदमी
इन्हें बेचने के लिए
बांसुरी बजा रहा है
यह धुन झरने की है
शायद पहाड़ों में बहती हवा की
यहाँ दूर तक फैला रेगिस्तान भी है
मन मोह रही है धुन
बांसुरी बजाने में खोया आदमी
अपने परिजनों के लिए
रोटी कमाने निकला है
उसे कहाँ पता
बांसुरी बनाने का सबसे बढ़िया बांस
असम से आता है
बांसुरी का इतिहास भी नहीं पता उसे
बांसुरी बजा रहा है
बिना जाने की धार्मिक कथा में
दधीची की हड्डी से
शिव ने तैयार की पहली बांसुरी
फिर गोकुल जा कृष्ण को सौंपी
संभ्रात इलाके में
बज रही है धुन
कि जैसे गौधूलि में
लौट आ रहे हों कामगार
बच्चे सोच रहे हैं
ये जो सरकंडों में ठुंसी हैं
बांसुरियाँ
उनमें संगीत बंद है
बजा रहा है बांसुरी
बिना जाने पन्नालाल घोष, हरिप्रसाद चौरसिया
अपनी लय में है
उसे नहीं पता
शास्त्रीय अथवा कर्नाटक संगीत शैली
कि जो ये छः बजते छिद्र हैं
उनमें कैसे उठते हैं चल अचल सुर
अचानक तोड़ता है लय वह
उसके फेफड़ों से आती हवा
रात के निवालों के लिए है
अब यहाँ एक चर्चित फिल्मी गीत है
जो भद्रजनों को
बांसुरी खरीदने के लिए उकसा रहा है
यह उसकी बेचने की कला होगी
लोगों ने खरीद ली हैं बांसुरियाँ
बच्चे तो बच्चे, बड़े भी फूंके मारते
कर्कश ध्वनियाँ निकाल रहे हैं
और सोच रहे हैं
कि कल पकड़ेंगे उसे:
"वैसा ही गीत क्यूँ नहीं निकल रहा है इनमें"
ख़ुश है
बाँसुरियाँ बेचने वाला
उसने आटा, सस्ता गोश्त, थोड़ी-सी शराब
खरीद लिए हैं
देर रात
जब चाँद अपने भरपूर यौवन पर है
अपनी पत्नी संग कच्चे में बैठा
बीवी के किसी उलाहने पर
मुस्करा उठा है
और फिर उसने निकाली है बांसुरी
शुरू की है
अपनी धुन
यह धुन पक्षियों के कलरव-सी नहीं
नदियों के घट-घट बहते जल से भी नहीं
धीरे धीरे उफान पर आ रही है धुन
इस धुन में
मीलों पसरा चीत्कार है
जैसे प्रलय में हो रहा हो
महाशिव का तांडव
इस धुन की गूंज
कच्चे से उठती
पक्के की ओर जा रही है
और बांसुरियाँ बेचने वाला आदमी
बेधड़क, बांसुरी बजा रहा है
बजाता जा रहा है