बात नहीं बनती / पृथ्वी पाल रैणा
यादों से बात नहीं बनती
कुछ दर्द निगोड़े ऐसे हैं,
जीना दूभर कर देते हैं।
सहना भी मुश्किल होता है,
कहकर भी बात नहीं बनती।
पतझड़ में सूखे पत्तों का
कब साथ दिया है पेड़ों ने,
जो बीत गए उन लम्हों की
यादों से बात नहीं बनती।
जो लडिय़ां बिखर गईं उनके
सब मोती जाने किधर गए,
किससे यह भूल हुई कैसे,
समझे भी बात नहीं बनती।
अपने हाथों में जादू था,
हम सारी उम्र यही समझे,
बनने से पहले उजड़ गई
बस्ती से बात नहीं बनती।
किस सोच में जाने उलझ गए
पतवार हाथ से फिसल गई,
अब टूटी किश्ती को लेकर
लहरों में बात नहीं बनती।
कहने में सुनना भूल गए,
सब कहा सुना बेकार हुआ।
आखिर अब बात यहाँ ठहरी,
कहने से बात नहीं बनती।
जीवन चाहे जैसा भी हो,
अपना ही रचा रचाया है,
अब सिर धुनने से क्या होगा,
रोने से बात नहीं बनती।
जो छूट गया सो छूट गया
जो नहीं हुआ सो नहीं हुआ,
आगे भी जाने क्या होगा,
चिन्ता से बात नहीं बनती।