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बार-बार कौंधती है वह / नवीन कुमार

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बार-बार
कौंधती है वह

डूबती सांझ में
हरे पेड़ की
आभा-सी
दीयों से रौशन
पोखर में
झिलमिलाती-सी

तमाम उलझनों
लंबे रास्तों को पार कर
वह दरवाजे पर है

मैंने उस लड़की को रोक दिया है
हाथ ऊपर कर
अभी-अभी वह टेंपो से दरवाजे पर आई है

मेरा घर/गिरा पड़ा है .
मैं नहाकर निकला ही हूंगिर पड़े

घर की
मिट्टी से
बने हुए बांध पर
पिता सोए पड़े हैं
भगंदर लिए

उनके चारों ओर हरियाली है
मुझको डर है
पिता की आनुवंशिक बीमारियों का

निकलना चाहता हूं मैं
घर से          कि
लड़की पैसे दे चुकी होगी

उघारे बदन खड़ा हूँ
दूर तक फैली है
जमीन ऊंची-नीची
एक बड़ा गबड़ा
उसके पार वीरान गाछ
फिर खेत


लड़की ने देखा होगा
यह सब
ढहे घर के सामने से
मुंह उठाकर
बहन उसे घुमाने ले गई है
घर में
सभी की नजरें उठ रही हैं
मेरी उठती है
लोगों की गिरती हैं

बहुत दूर से आई है
शाम तक
उसको लौट जाना है
नहीं तो वह लौट नहीं पाएगी

दिन होता है
और लड़की निकल पड़ती है
शाम घेरने लगती है
लड़की लौटती है पंछियों-संग
मौसम बदल रहा होता है

मूसलाधार वर्षा में
छाता लिए खड़ी है वह
दरवाजे पर
कपड़ों का रंग
कुछ ऐसा
सांवला
भीगा-सा है और चेहरा भी
कि वह
भीगी नहीं दिखी

अपनी जड़ों तक अपने लोगों के बीच
वही कमरा है

भीतर कमरे में आई है बहुत दूर से
वह आती है पढ़ने
वह आई है प्यार में या कि
यह हजारों सालों की
बेचैनी है
जो उसे खींच लाती है
उलझनों के ऊंचे दुर्ग से
बाहर
वह क्या करने आती है

भीतर कमरे में आई है
कपड़े उसने गारे हैं.
कमरे को निहारता हूं
चौकी
बेतरतीब किताबें
टेबिल और जमी धूल
और कहीं कुछ के निशान नहीं हैं

बहुत दूर से आई है
 फिर लौट जाएगी
क्या वह लौट जाएगी
पिटे हुए देवता बुलाते हैं उसे
अंततः वह जा चुकी है
और मेरे पास खोने के लिए
कुछ भी नहीं बचा है

(2)

गलियां
चौरास्ते, गंगा का किनारा
यूनीवर्सिटी
कोई खुश्बू        उसकी गंध
सभी बहते रहते हैं
लगातार पसीने से नहाया हूं
खोजी आंखें सूखती जा रही हैं

कुछ नहीं है
सभी स्मृतियां हैं
और हिंसक हो उठी हैं

सभी को जड़ हो जाना है
और मुझको पहुंचना है

अपनी जड़ों तक
अपने लोगों के बीच

वही कमरा है
वही टेबिल, किताबें और
बाकी बची हुई उसकी निशानियां

अंधेरे बंद कमरे में
वह फुसफुसाती थी ऐसे
कि दरवाजे की चूलें हिलने लगती है
पूरे में व्याप्त है वह

वह आती थी
दरवाजे पर ऐसे
मानो उसे मुझसे कोई मतलब ही न हो
उसके आने के पहले की हवाएं
कई बार झूठ बोल जाया करती
गिलहरी, चूहे
बिल्लियां सभी झूठ बोला करते
और/रिक्शे की घंटियां भी
वह जा चुकी है

(3)
सामंती कूड़े-कचरों का देश
पतनशील पूंजीपतियों का देश
संस्कृति की गुहार मचानेवाले
पोंगापंथियों का देश
हवाई कल्पक जंगबाजों का देश
तरह तरह के रंगीन लिफाफी समाजवादियों
का देश

संसद, विधान सभा
कार्यपालिका, न्यायपालिका, प्रेस, पुलिस
के आपसी संश्रय
क्रमचय और संचय के सिद्धांत
सुविधानुसार सब चालू हैं
सब मैनेज्ड है
एक ही स्थिति बहाल है
एक से चेहरे हैं
दल-बदल से ऊपर उठी
चुनी पंचायतों से लेकर
विधानसभाओं, लोकसभाओं तक में

वही के वही चेहरे हैं
फ्लैशें चमकती रहती हैं
उपग्रह चैनलों की भरमार ने रेशा-रेशा
हिलगा डाला है
संसद तक का
पर कैसा तिलस्म है यह
और कितना मजबूत
कि टूट नहीं रहा

घिनौने और जर्जर हो चुके मध्ययुगीन
अश्लील पिताओं की
खौफजदा, प्रेम करती बेटियों की
अनुपस्थिति से भरे हैं हम
हम जो कई एक जर्द चेहरे हैं,
गमी का-सा मंजर है
और तिलस्म अंदर टूट नहीं रहा
बाहर का भी नहीं टूट रहा


उसकी अनुपस्थिति से भरा हूं
मैं वह जो लौट गई है
कौंधती है वह बार-बार
चेहरे पर तिरछी रेखाओं के साथ.
आहटें चमकती हैं
और कोई खुश्बू आकर चली जाती है
कुछ नहीं बच पा रहा
कहीं भी
कुछ भी नहीं बच पा रहा है
कि
किसान आत्महत्याएं करना सीख रहे हैं
अपने हंसुओं से उन्होंने अपने ही
गले को रेतना शुरू कर दिया है

लड़की लौट जा रही है
क्या इन्हें आत्महत्याएं कर लेनी थी
क्या किसी लड़की को लौट जाना था

उन्होंने हत्या क्यूं नहीं की
क्यों नहीं कर दीं उनकी हत्याएं
जो उनकी आत्महत्याओं के कारण हैं

क्या हुआ है
क्या हो गया है

कौन सी आफत आ पड़ी है
कौन सा महामंदी का दौर फिर से
आ पड़ा है
कैसी नई गुलामी है
कैसा दौर है यह
क्या केसरिया संसद और
अमरीका आपस में मिल गए हैं
और क्या अमरीका-रूस की खूब छन रही है।

(4)

आओ, आओ न!
मेरी प्यारी देखो
खलिहानों के दर्द उठकर यहां शहर तक
चले आए हैं      पटे पड़े हैं सड़कों पर
बड़े-बड़े रोड़े झोलों में भरे
जर्द चेहरों में

इनके पांव नहीं कांपते
भिखमंगे समाज के पिताओं की तरह
भारी मन से
विश्वास लिए
और आंखों में ज्वाला
धीरे-धीरे घेर रहे हैं शहर को

आओ न, देखो न
यह कायनात देखती हो जो आसमान को साया
किए हुए है
एक-एक आदमी इनके खम हैं
हमें इनका खम बनना है
देखती हो
यह जो भीड है
और भीड़ जो अमूर्तन का अहसास कराती है
इनके हाथों के आदिम हथियार
इनके झंडे
जो खूब लाल हैं
वह मेरी और तुम्हारी माओं के
ललाटों की बिंदी से भी लाल हैं
उन्हें सुर्खरू करना है
हमें इस भीड़ का होना है
जो कि बल है दुनिया का.

(5)

भिखारी ठाकुर की तान पर
उठ रही है जमीन
झुक रहा है आसमान
स्वर्ग पर धावा बोलने को
चढ़े चले जा रहे हैं लोग
1942 का क्रांति मार्ग है यह
सातों शहीदों के झंडे लाल हो चले हैं

(6)

फूले पलाश
क्या
सकल वन छाए