भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बिखरते रिश्ते / सुलोचना वर्मा
Kavita Kosh से
नही बुनती जाल इस शहर में अब मकड़ियाँ
लगे हुए हैं जाले साज़िश के हर दीवार पर
बिखर गये हैं रिश्ते, अपनो की ही साज़िशो से
बस यादें टॅंगी रह गयी हैं घरों की किवाड़ पर
टुकड़े हुए रिश्तों के, ज़मीन के बँटवारे में
एक ही उपनाम है इस शहर के हर मीनार पर
क्यूँ बेच रहे हो आईने इस नुक्कर पर तुम
ये अंधो का शहर है, और धूल हर दीदार पर