भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिखरने नहीं दिया / पद्माकर शर्मा 'मैथिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माला के मोतियों को बिखरने नहीं दिया।
आँखों से आंसुओं को निकलने नहीं दिया॥

जिसकी हर इक ईंट को तुमने सजाया था।
उस दर्द की दीवार को गिरने नहीं दिया॥

सुख के सूए को हमने है रखा सम्भाल कर
पिंजरे से दुःख के उसे उड़ने नहीं दिया॥

हर प्यार के बिरवे को बचाया है धूप से।
इस मोम के उपवन को पिघलने नहीं दिया॥

मालिक ने क्या किया ये बताता था वह मजूर।
चाबुक की मार पर भी सिसकने नहीं दिया॥

शतरंज का-सा खेल बन गई है ज़िंदगी।
प्यादों ने बादशाह को बचने नहीं दिया॥

सहमा हुआ-सा लगता है इस युग का आदमी।
चिंता ने पेट की उसे हँसने नहीं दिया॥