बियाबान... सरेराह / देवी प्रसाद मिश्र
मरना ठीक होता है या नहीं लेकिन मरना पड़ता है कि जैसे शराब पीनी ठीक है या नहीं
लेकिन पीनी पड़ती है प्रेम करना पड़ता है
और कविता लिखनी पड़ती है।
जिस कवि के बारे में कहा जा रहा है कि वह मर गया
और जिन बन्द आँखों के बारे में पता नहीं क्या-क्या सियापा किया जा रहा है
उसमें अमर्त्य रहने की गहरी शरारत है।
देह कितनी जल्दी बर्बाद और खत्म हो जाती है
इच्छाएँ बरसों बाद भी 19 वें जन्मदिन की
तारीखें बनी रहती हैं।
मृत्यु की भी मुक्ति नहीं उसे पुरानी प्रेमिकाओं के टॉप्स पहनकर
मण्डराना पड़ता है कवि की अमरता के हठ के इर्द-गिर्द।
क्रान्तियाँ कविताओं में उत्पाद करती रहती हैं
लेकिन बस का टिकट और नौकरी की तनख्वाहें पूंजीवाद के टिकटघरों और दफ्तरों से
मिलती है और कौन फुटपाथ पर रहेगा और कौन मकान में और
किस मकान में
और कौन-कौन अस्पताल में भर्ती होगा और किस
ये नियम फासीवादी बनाते हैं या अपराधी या सट्टेबाज़ या सामन्त
या माफ़िया जो अमूमन जनप्रतिनिधि भी होते हैं।
बलाओं का पता नहीं कि उन्हें पूंजीवाद ने बनाया या मार्क्सवाद ने
लेकिन वे कविताओं पर कब्ज़ा कर लेती हैं
और उसे सत्रह साल की छोकरी की तरह भटकाती रहती हैं
जिसे न राह मिलती है
न मकान।
कविता तमाम तरह के रसायनों और मोहब्बत और खून में लिथड़ती रहती है
और पता नहीं कि वर्जनाओं के नियम तोड़ती है और
कहीं भी भाग जाने के लिए उतावली रहती है
कहीं भी आग लगा देती है किसी पर भी गोली चला देती है
और पता नहीं कहाँ-कहाँ जली मिलती है
नीली और स्याह और रुआंसी और बियाबान में
सरे राह हाथ देती रहती है
बस, उसे वह खड़-खड़ करता ट्रक दिख भर जाए
जिसके पीछे लिखा हो स्वतन्त्रता।