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बिसारूँ कैसे स्याम सुजान / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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बिसारूँ कैसे स्याम सुजान?
एकमात्र स्मृति ही है आत्मा, स्मृति ही जीवन-प्रान॥
एक मधुर अनन्य स्मृति प्रिय की नित्य अखंड बनी मन।
प्रानी-पदार्थ-परिस्थिति, सब कौ सहजहिं भयौ बिसर्जन॥
नित नव सुंदरता, नव माधुरि, नित नव रूप बिकास।
नित नव प्रीति, नित्य नव गौरव, नित नव रास-बिलास॥
नित नव नेह, भाव नित नूतन, रात-दिवस मन राजत।
नित नव संगम की सुमधुर स्मृति हिय महँ नित्य बिराजत॥