बिहारी सतसई / भाग 22 / बिहारी
सुख सौं बीती सब निसा मनु सोये मिलि साथ।
मूका मेलि गहे सु छिनु हाथ न छोड़ै हाथ॥211॥
सों = से। मनु = मानो। मिलि साथ = गाढ़ालिंगन में बद्ध। मूका मेलि = मुट्ठी बाँधकर। गहे = पकड़े।
सारी रात (स्वप्न में) सुख से बीती। मानो (नायक) साथ ही मिलकर सोया हो। (स्वप्न में ही) मुट्ठी बाँधकर जो एक क्षण के लिए पकड़ा, सो (अब नींद टूटने पर भी) हाथ को हाथ नहीं छोड़ता- (नायिका) अपने ही हाथ को प्रीतम का हाथ समझकर नहीं छोड़ती।
नोट - स्वप्न में नायिका अपने ही हाथों को पकड़े हुए प्रियतम के आलिंगन का मजा लूट रही थी। इतने में उसकी नींद टूट गई। अब जागने पर मुट्ठी नहीं खुलती। दोनों हाथ परस्पर जकड़े हुए हैं। जाग्रत अवस्था में भी स्वप्न का भान हो रहा है।
देखौं जागत वैसियै साँकर लगी कपाट।
कित ह्वै आवतु जातु भजि को जानै किहिं बाट॥212॥
जागत = जगकर। साँकर = जंजीर। कपाट = किवाड़। कित ह्वै = किस ओर होकर, किधर से। भजि = भागना। बाट रास्ता।
जगकर देखती हूँ तो किवाड़ में पहले की तरह ही जंजीर लगी रहती है (जैसे रात को बंद करके सोई थी), किधर से आते हैं (और) किस रास्ते भाग जाते हैं, (यह) कौन जाने?
नोट - यह स्वप्न दशा का वर्णन है। उस्ताद जौक ने लिखा है-
खुलता नहीं दिल बन्द ही रहता है हमेशा।
क्या जाने कि आ जाता है तू इसमें किधर से॥
गुड़ी उड़ी लखि लाल की अँगना अँगना माँह।
बौरी लौं दौरी फिरति छुअति छबीली छाँह॥213॥
गुड़ी = गुड्डी, पतंग। अँगना = स्त्री। अँगना = आँगन। माँह = में। बौरी = पगली। लौं = समान। छबीली = सुन्दरी।
प्रीतम की गुड्डी उड़ती हुई देखकर (वह) सुन्दरी स्त्री अपने आँगन में पगली-सी दौड़ती फिरती है और (आँगन में पड़नेवाली उस गुड्डी की) छाया को छूती फिरती है।
नोट - गुड्डी की छाया के स्पर्श में ही प्रीतम के अंगस्पर्श का आनन्दानुभव करती है; क्योंकि गुड्डी का सम्बन्ध प्रीतम के कर-कमलों से है। इस दोहे पर कृष्ण कवि ने यों टीका जड़ी है-
नन्दलला नवनागरि पै निज रूप दिखाइ ठगोरी की नाई।
बाहर जात बनै गृह ते न बिलोकिबे को अति ही अकुलाई॥
प्यारे के चंग इते में उड़ी लखि मोद भरी निज आँगन आई।
होत गुड़ी की जितै जित छाँह तितै तित छूवै को डोलति धाई॥
उनकौ हितु उनहीं बनै कोऊ करौ अनेकु।
फिरत काक-गोलकु भयौ दुहूँ देह ज्यौ एकु॥214॥
हित = प्रीति। काक-गोलकु = कौए के नेत्रों के गढ़े। ज्यौ = जीव, प्राण। दुहूँ = दोनों।
उनकी प्रीति उन्हीं से सधती है - (इसलिए दोनों अभिन्न रहेंगे ही)- कोई हजार (निंदा) क्यों न करे। दोनों की देह में एक ही प्राण कौए के (दोनों) गोलक (के एक ही नेत्र) की तरह संचरण करता है।
नोट- किंवदन्ती है कि कौए के दोनों गोलकों में एक ही नेत्र होता है, जो दोनों ओर आता-जाता रहता है। इसीलिए देखने के समय कौआ सिर को इधर-उधर घुमाता है।
करत जातु जेती कटनि बढ़ि रस-सरिता-सोतु।
अलबाल उर प्रेम-तरु तितौ तितौ दृढ़ होतु॥215॥
जेती = जितनी। कटनि = कटाव। सरिता = नदी। स्रोत = धारा। आलबाल = थाला, वृक्ष की जड़ के पास चारों ओर से बनी हुई मेंड़। उर = हृदय। तरु = वृक्ष। तितौ तितौ = उतना ही, अधिकाधिक।
रस-रूपी नदी का स्रोत बढ़कर जितना ही कटाव करता जाता है, हृदय-रूपी थाने का प्रेम-रूपी वृक्ष (कटाव के कारण गिरने के बदले) उतना ही मजबूत होता जाता है।
खल-बढ़ई बल करि थके कटै न कुबत-कुठार।
आलबाल उर झालरी खरी प्रेम-तरु-डार॥216॥
खल = दुष्ट, निन्दक। कुबत = निंदा। कुठार = कुल्हाड़ी। झालरी = हरी-भरी, सुपल्लवित। खरी = विशेष।
दुष्ट-रूपी बढ़ई जोर लगाकर थक गये, (किन्तु) निन्दा-रूपी कुठार से न काट सके। (वह) प्रेम-रूपी वृक्ष की डाल हृदय-रूपी थाने में और भी हरी-भरी (हो रही) है।
छुटत न पैयतु छिनकु बसि प्रेम-नगर यह चाल।
मारथौ फिरि फिरि मारियै खूनी फिरै खुस्याल॥217॥
छुटन न पैयतु = छुटकारा नहीं पा सकते। छिनकु = क्षण + एकु = एक क्षण। खुस्याल = खुशहाल, आनन्दयुक्त। खूनी = हत्यारा।
एक क्षण के लिए भी बसकर फिर छुटकारा नहीं पा सकते। प्रेम नगर की यही चाल है। (यहाँ) मरे हुए को बार-बार मारा जाता है और हत्या करने वाला स्वच्छन्द घूमता है।
निरदय नेहु नयौ निरखि भयौ जगतु भयभीतु।
यह न कहूँ अब लौं सुनी मरि मारियै जु मीतु॥218॥
निरदय = निर्दय, दयाहीन, निष्ठुर। निरखि = देखकर। लौं = तक। जु = जो। मीत = प्रेमी।
(तुम्हारे इस) नये प्रकार के निष्ठुर प्रेम को देखकर संसार भयभीत हो गया है। यह बात तो अब तक कहीं न सुनी थी कि जो प्रेमी हो वह (स्वयं भी) मरे (और अपनी प्रेमिका को भी) मारे-आप भी विरह की आग में जले और अपनी प्रेमिका को भी जलावे।
क्यौं बसियै क्यौं निबहियै नीति नेह-पुर नाँहि।
लगा-लगी लोइन करैं नाहक मन बँधि जाँहि॥219॥
नीति = न्याय। नेह-पुर = प्रेम-नगर। लगालगी = लाग-डाँट, मुठभेड़। लोइन = आँखें। नाहक = बेकसूर, निरपराध।
कैसे बसा जाय और (बसने पर) कैसे निर्वाह हो! (इस) प्रेम-नगर में न्याय तो है ही नहीं। (देखो) परस्पर लड़ती-झगड़ती तो हैं आँखें, और बेकसूर मन कैद किया जाता है!
देह लग्यौ ढिग गेहपति तऊ नेहु निरबाहि।
नीची अँखियनु हीं इतै गई कनखियनु चाहि॥220॥
देह लग्यौ = देह से सटा हुआ। ढिग = निकट। गेहपति = गृहपति = स्वामी। तऊ = तो भी। नेहु = प्रेम। नीची अँखियन = नीची आँखों से = नीची निगाह से। चाहि = देखना।
देह से सटा हुआ निकट ही उसका पति था, तो भी (वह) प्रेम निबाहकर नीची निगाह से ही इधर कनखियों से देख गई।