भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बुझे हुए सब तारे / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
अपने होने में जो सितारे
कब का बुझ चुके
उनकी रोशनी में जो टिमटिम है
वह रास्तों के मोड़ों की है
यहाँ प्रेमीजन जो सितारे
अपनी प्रेमिकाओं की नज़र कर रहे हैं
हो सकता है ये वही सितारे हों
जो हैं ही नहीं
प्रेमिकाओं की चमकती आँखों के
सितारा उपमान तभी बुझ चुके हों
जब पहले मनुष्य सीख रहे थे प्यार करना
मरते सितारों की चीख सुनने की उनको फुर्सत नहीं थी
तो यहाँ धरती पर मरना भी कोई चीज़ नहीं थी
धरती के भीतर और बाहर
जितना बाक़ी हैं
बहुत पहले मर चुके पूर्वजों की हड्डियाँ
उनके बनाए चित्र और पत्थर के हथियार
ये राह बताने के सितारे हैं
जो बुझे नहीं हैं