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बुरे दिनों में / विजय सिंह नाहटा
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बुरे दिनों में
जब घृणा चरम पर है
और;
अहमन्यताओं ने
प्राचीर बन जब हमें घेर रक्खा
चारों तरफ़ से
तब;
गणना कर रहा हूँ
सघन प्रेम:
जो, मैंने तुम्हें किया उत्ताप से
जब तब गाहे बगाहे
चरम एकांत में:
क्षण की दिगम्बरता में
मैंने तुम्हें किया अनावृत
अब चुन रहा प्रेम की टूटी हुई
बिखरी पंखुड़ियाँ
समय की मार से जो
सूख कर पीली पड़ गई
क्यों न हो;
एक सांझी विरासत जो ठहरी
होती तुमसे ही अलंकृत
ज्यों टूटे खंडहर के मलबे में ढूँढ रहा
ध्वस्त हो चुका,
मगर;
निर्माण का वह प्रथम सपना
कभी जो देखा गया हमारे दरमियाँ।