बेआस की बात / विपिन चौधरी
क्या चाहिए?
पंसारिया सेठ को रोज़-रोज़
इस वाक्य की डु्गडुगी नहीं बजानी पड़ती
शाम ढले उन्हीं की दुकान से तो जाता है
कई पेट को राशन
पाव दाल
पाव चावल
एक बोतल मटिया तेल
एक किलो आटा
नून-मिर्च-हल्दी और कभी-कभार सत्तू-गुड़ भी
‘तनिक जल्दी करीबे’
गले भीतर थूक की आख़िरी किस्त
हलक से नीचे उतरने को है
दिहाड़ीदारों को जल्दी है
जाकर हैंडपंप से पानी लाना है
स्टोव में घड़ी भर को पम्प मारने हैं
फिर अपने पेट की डबिया का मुँह बंद करना है
शाम के भारी धुँधलके में इन सबकी पहचान मुश्किल है
सब दिहाड़ीदार एक से दिखते हैं
सबकी बोली से राशन टपकता है
सब एक-एक पाई का हिसाब करते ठिठकेंगे
सब अँधेरी कोठरियों में पनाह लेंगे
सब टूट कर सोएँगे
सब तीन-चार साल बाद अपने गाँव का मुँह देखेंगे
सबकी आँखों की कोर सूखी और कड़क होगी
मज़दूरी ना मिलने पर सब रतजगा करेंगे
सब पोलिथिन को ‘मोमजामा’ कहेंगे
दिहाड़ी के ना होने पर सब उस गंदे नाले वाले चौक पर
नए काम की बाट में बैठेंगे
457 मिलीयन दिहाड़ीदार
इतनी विशाल संख्या से तो
एक पूरे देश का नक्शा तैयार होता है
और एक ये भूखे कामगारों का देश
जिसके श्वेत-श्याम सपनों पर नीला थोथा डोल गया है
इस देश का अजब किस्सा है
यहाँ मेहनत को ‘मज़दूरी’ कहते हैं
तनख़्वाह को ‘दिहाड़ी’
जो चंद रुपयों से ऊपर नहीं चढ़ती
यहाँ मिल की पन्द्रहवीं मंज़िल से गिर कर
एक जवान मज़दूर बिना मुआवज़े के
बिस्तर पर पड़ा-पड़ा बूढ़ा हो जाता है
यहाँ सेठों के किए-धरे को साफ़ करने के लिए
मज़दूरों के पसीने को इस्तेमाल में लाया जाता है
एक साथ कमर झुकाए
कोयले की खदानों में
बीस मंज़िला इमारत बनाते बेघर मज़दूर
गटर साफ़ करने हुए
डामर की टूटी सड़कों पर गर्म तारकोल उड़ेलते हुए
दिखते है दिहाड़ीदार
कतारबद्ध, छेनी, हथोड़ा, तन्सला, ईंट, कस्सी, कुदाल, जेली लिए हुए
इतनी भोली और बेजुबान जनता देखी है कहीं
हर शाम बिना हो-हल्ला किए
जो अपनी मेहनत का छटाँक ले
चुपचाप अपनी राह हो लेती है