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बेटी का आगमन-दो / मुकेश मानस
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बेटी का आगमन : दो
किसी बीहड़ वन में आ गया था मैं
किसी निर्जन घाटी में चल रहा था
किसी अंतहीन मरूस्थल में तप रहा था
और बरसों से परिचित शहर की
सड़कों पर खो रहा था
अपने ही आपको ढूँढ़ने की कोशिश में
ऐसी गहन निराशा में
ऐसी अतल उदासी में
दिखा मुझको
ये तुम्हारा जगमगाता हुआ चेहरा
जिसे देखने के बाद
सब कुछ कितना बेमानी हो गया।
कब से चलती आईं हैं जो मेरे साथ
मेरी असफलताएं
अंधकार के वर्तुल सी मेरी गहन उदासी
बार-बार जुड़ते और टूटकर बिखरते मेरे स्वप्न
साहस की सारी आभा लीलतीं
मेरी सुबहें, मेरी शामें
अब क्या मतलब है इन सबका…
2009, खुशी के पहले जन्मदिन पर