भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बेसुरे विचार / विनय मिश्र
Kavita Kosh से
बेसुरे विचारों के फ्यूजन से
संवेदनाओं की वर्णमाला
धीरे-धीरे सिकुड़ रही है
आज़ादी जो एक ख्वाब -सी
पलती थी हमारी आंँखों में
मेले -सी लगकर
धीरे -धीरे उजड़ रही है
प्रियवर
आपने अजाने ही
ऐसी मर्मभेदी बात कही है
जो सुनने में
कितनी भी ग़लत लगे
अनुभव में
एकदम सही है