भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बोध की ठिठकन- 15 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अजित कुमार की एक
कविता की प्रतिक्रिया में

रेलवे के पहियों को
पटरी से जोड़ा गया
ताकि वे चलने को स्वतंत्र तो हों
पर उच्छृंखल न हों
और हाँ
धरती के यान को
तेज रफ्तार की तकनीक भी मिल जाए
सोचनें में कुछ हद तक
लगता भी यही है
पर पहिए तो जहाज को भी मिले
पर पटरीविहीन होने पर भी
पहिए उच्छृंखल नहीं हुए.

जाहिर है कि
स्वतंत्रता की नकेल कहीं और है
शायह वहीं जहाँ उच्छृंखलता की है.

स्वप्नशीलों ने
इमारतों की नींव को पटरी देकर
कोई भूल नहीं की
भूल उनसे निरीक्षण में हुई
आकाश में उठती ऊँचाई के अनुपात में
पेड़ों की गहरी जड़ों के साथ
वे नीचे नहीं धँस सके.

उन्होंने ईमारत को ऊँचाई तो दी
मगर नींव को गहराई नहीं दे सके.

समय की माँग के साथ
उन्होंने रफ्तार तेज तो की
पर उसके पहलू में सोए
आकस्मिक खतरों से
वे सजग न हो सके
संतुलन टूट गया
ईमारत के टिकाव के लिए
उनके सोच-संदर्भ में
कहीं चूक अवश्य हुई
पर वह संदर्भ पटरी का नहीं था
हटरी तो एक रुढ़ि हो सकती है
जो खोजी हुई दिशाओं में
यात्रा करने को अभिशप्त है
अनखोजी दिशाओं के खतरों को
वह उठा नहीं सकती.