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बोनसाई / मिथिलेश श्रीवास्तव

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इस आधुनिक समय में
हमने कई कलाएँ सीखी हैं
बोनसाई उनमें से एक हैं
पृथ्वी गमले में रख दी गई है
और गहराई तक अपनी जड़ें फैलाने वाले पेड़
गमले के भीतर उन्हें सिकोड़ते हैं
बरगद का कद भी हमारी तरह छोटा हो जाता है

इस कला का उपयोग
आदमी पर नहीं होता
आदमी में जड़ें नहीं होतीं
आराम से उसका क़द घटता रहता है
क़द छोटे होते जाने का आदमी
विरोध नहीं करता
यह कला और विकसित हुई है
आदमी घटा सकता है क़द
किसी का भी

सिकुड़ी हुई जड़ें और शाखाएँ
फैलने लगती हैं बरगद के भीतर
वह गमले में भी विशाल दिखता है
उसकी इस विशालता पर मुग्ध हो जाता है आदमी
जोर से हँसता है बोनसाई बरगद ।