बोलते पत्थर,चार कविताएँ..... / हरकीरत हकीर
(१)
बोलते पत्थर ........
जब कभी छूती हूँ मैं
इन बेजां पत्थरों को
बोलने लगते हैं
ज़िन्दगी की अदालत में
थके- हारे ये पत्थर
भयग्रसित
मेरी पनाह में आकर
टूटते चले गए
बोले......
कभी धर्म के नाम पर
कभी जातीयता के नाम पर
कभी प्रांतीयता के नाम पर
कभी ज़र,जोरू, जमीन के नाम पर
हम ..............
सैंकडों चीखें अपने भीतर
दबाये बैठे हैं ........!!
(२)
मन्दिर मस्जिद विवाद ....
वह ....
कुछ कहना चाह रहा था
मैंने झुक कर
उसकी आवाज़ सुनी
वह कराहते हुए धीमें से बोला......
मैं तो बरसों से चुपचाप
इन दीवारों का बोझ
अपने कन्धों पर
ढो रहा था
फ़िर......
मुझे क्यों तोड़ा गया ....?
मैंने एक ठंडी आह भरी
और बोली, मित्र .......
अब तेरे नाम के साथ
इक और नाम जुड़ गया था
'मन्दिर' होने का नाम ......!!
(३)
भ्रूण हत्या ......
मन्दिर में आसन्न भगवान से
मैंने पूछा .......
तुम तो पत्थर के हो ....
फ़िर तुम्हें किस बात गम ....?
तुम क्यों यूँ मौन बैठे हो......??
वह बोला .......
जहां मैं बसता हूँ
उन कोखों में नित
न जाने कितनी बार
कत्ल किया जाता हूँ मैं .....!!
(४)
आतंक के बाद ......
सड़क के बीचो- बीच
पड़े कुछ पत्थरों ने ...
मुझे हाथ के इशारे से रोका
और कराहते हुए बोले.....
हमें जरा किनारे तक छोड़ दो मित्र
मैंने देखा .....
उनके माथे से
खून रिस रहा था
मैंने पूछा ....
'तुम्हारी ये हालत....?'
वे आह भर कर बोले .....
तुम इंसानों के किए गुनाह ही
इन माथों से बहते हैं .....!!