भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बोलेंगे एक दिन / राजेश श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपनी जुबान खोलेंगे एक दिन
ये पत्थर भी बोलेंगे एक दिन।

शोख प्रियतमा है नदी, धारा भुजाएं हैं
आलिंगन में जिनके मीलों बहते आए हैं
रेत-रेत होकर पथरीला तन बिखर गया है
समर्पण का अल्हड़ अध्याय पर निखर गया है

टुकड़ा-टुकड़ा हो लेंगे एक दिन
ये पत्थर भी बोलेंगे एक दिन।

ये माना कि ये बोलने के काबिल नहीं होते
ये पत्थर तो हैं मगर पत्थरदिल नहीं होते
इनके होंठों पर चुप्पी का पहरा होता है
दिखता नहीं है जो वह घाव गहरा होता है

पर हँसकर ही डोलेंगे एक दिन
ये पत्थर भी बोलेंगे एक दिन।