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बोलो कब आओगे / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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नाथ! न अब तक आये तो फिर बोलो कब आओगे?

भारत की दयनीय दशा दिन-दिन बढ़ती जाती है,
पाप-भार से दबी धरित्री पल-पल अकुलाती है।
सभी ओर दानवता का ताण्डव देता दिखलाई,
कलपाती मानवता पल के लिए न कल पाती है

देख चुपचाप, देखते ही कब तक जाओगे?
नाथ! न अब तक आये तो फिर बोलो कब आओगे?

ढूँढ़ रही है नाव धर्म की डगमग हुई, किनारा,
दीन-हीन भक्तों को मिलता कहीं न आज सहारा,
द्वापर में था एक, अनेकांे कंस नृशंस हुए अब,
कितने ही वसुदेव-देवकी काट रहे दुख-कारा।

बाट जोहते पलक बिछाये, कब तक तड़पाओगे?
नाथ! न अब तक आये तो फिर बोलो कब आओगे?

बीते युग की याद बन गई सुख की बातें सारी,
फेल रही सर्वत्र हाय! भुखमरी और बेकारी।
जिस भारत में दूध-दही की नदियाँ नित बहती थीं,
आज वहीं पर हुआ अन्न का भी संकट है भारी

वैभव का युग फिर से इस धरती पर कब लाओगे।
नाथ! न अब तक आये तो फिर बोलो कब आओगे?

आज़ादी मिल गई, ग़रीबी किन्तु नहीं मिट पाई,
जन जीवन को निगल रही है मौत बनी महंगाई।
‘रामराज’ का नहीं आज तो ‘काम-राज’ का युग है
पद-लोलुपता ही सबके है दिल में आज समाई।

कब दुखियारी जनता को कष्टों से छुड़वाओगे?
नाथ! न अब तक आये तो फिर बोलो कब आओगे?

भड़की चारों ओर धरा पर रण की भीषण ज्वाला,
अपने ही कर्मों से मानव कर बैठा मुँह काला।
मानव का विज्ञान उसी के लिए बना विध्वंसक,
अन्धे मानव को न दीख पड़ता है कहीं उजाला।

सौख्य-सुधा सन्तप्त उरों में फिर कब सरसाओगे?
नाथ! न अब तक आये तो फिर बोलो कब आओगे?