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भीत परहक स्त्री / दीपा मिश्रा

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खजुराहो के मंदिरक भीत परहक स्त्री लोकनि
नहि बुझैत छथि प्रेमकेँ पाप
हुनका नहि बोध जे कामकेँ वासना मानल जाइए
ओ स्वतंत्र भ' के जीबैत छथि
अपनाकेँ एनामे देखि
अपनहिसँ सम्मोहित होइत छथि
अपन सौंउथमे भरैत छथि सेनूरक मोटका लकीर
आ गर्वसँ अगराइत भरि छाक
अपनहि अंगक स्पर्श करैत छथि
उन्मादसँ परिपूर्ण,स्व प्रेमक प्रदर्शन करैत ओ लिप्त छथि
अपनहिमे
ओ भोगैत छथि ओ सबटा सुख जे ईश्वर प्रदत्त अछि
हुनका अनावृत्त होएबाक भय नहि
हुनका नहि भान जे किओ हुनका संभोगरत देखि रहल
ओ भोग्या नै भोक्ता छथि
ओ भोगैत छथि ओ सबटा सुखकेँ
जे नहि भोगि पबैत छथि आन स्त्री सब
खजुराहोक स्त्री नहि ठोकल गेल छथि सम्बंध अनुबन्धक कांटीसँ
हुनकर पीठ पर नहि दागल गेल छन्हि नैतिकता अनैतिकताक कोनो दाग
अपन प्रेमी संग काममे रत ओहि प्रेमिका सबकेँ नै
किओ सम्बोधित करैये कहिकेँ
वैश्या, कुलटा ,रांड़,छिनैर
ओ गर्वसँ अपन प्रेमक प्रदर्शन करैत चरम सुखक अनुभूति करैत छथि
खजुराहोक मंदिरक देबालक स्त्री सब जेना
हमरा दिस देखिकेँ उपहास करैत छथि
ओ हमरा दिस आंगुरसँ संकेत करैत जेना कहैत छथि
सुनू पाषाण हम नहि अहाँ छी
हम त' हज़ार बरखसँ जीवित छी
हम अकचका जाइत छी
अपन एकटा हाथ भीत पर बनल ओकर वक्ष पर रखैत छी आ दोसर अपन हृदय पर
ओतय स्पंदन अछि एतय शून्यता
हम सम्मोहित भेल हुनका सब दिस तकैत छी
हमर दुनू हाथ स्वत: प्रणामक मुद्रामे जुड़ि जाइए
मोनहि मोन हम कहैत छी
हे मंदिरक भीत परहक स्त्री लोकनि
वास्तवमे जीवित अहीं छी