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भूख / कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

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भूख
मानव तन से लिपटी सिमटी
एक ऐसी लड़ी
जो जोड़ती है
जिन्दगी में अनेक कड़ी।
कहीं भूख है रोटी की,
तो कहीं दौलत की,
किसी को भूख शोहरत की,
तो किसी को ताकत की,
कत्ल हुआ किसी का भूख में,
लुट गया मानव तन भी भूख में।
भूख ने दिये अंजाम हमेशा
अच्छे और बुरे,
मिली हमें आजादी
भूखे रहकर
आजादी की भूख में,
पर
लुटा गये शांति अपनी
चन्द सिक्कों की भूख में।
कब खत्म होगी भूख
इस मानव मन की?
शायद आज,
शायद कल या
शायद कभी नहीं?