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भूख का कोरस / मदन कश्यप

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जानवर होता
तो भूख को महसूस करते ही निकल पड़ता
पेट भरने की जुगत में
और किसी एक पल पहुँच जाता वहाँ
प्रकृति ने जहाँ रख छोड़ा होता मेरे लिए खाना

लेकिन आदमी हूँ भूखा
और पता नहीं कहाँ है मेरे हिस्से का खाना
आदमी हूँ बीमार
कहाँ है मेरे हिस्से की सेहत
आदमी हूँ लाचार
कहाँ है मेरे हिस्से का जीवन

कुछ भी तो तय नहीं है
बिना किसी नियम के चल रहा है जीवन का युद्ध

चालाकी करूँ
तो दूसरों के हिस्से का खाना भी खा सकता हूँ
पर बिना होशियारी के तो
अपना खाना पाना और बचाना भी सम्भव नहीं

पेट भरने के संघर्ष से जो शुरू हुई थी सभ्यता की यात्रा
कुछ लोगों के लिए वह बदल चुकी है — घर भरने की क्रूर हवस में
बढ़ रहा है बदहजमी की दवाओं का बाज़ार
और वंचितों की थालियों में कम होती जा रही हैं रोटियाँ

ऐसे में कहाँ जाए भूखा ‘रामदास’
जो माँगना नहीं जानता और हार चुका है जीवन के सारे दाँव
ठण्डे और कठोर दरवाज़ों वाले बर्बर इमारतों के इस शहर में
भूख बढ़ती जा रही है सैलाब की तरह
और उसमें डूबते चले जा रहे हैं
भोजन पाने के लिए ज्ञात-अज्ञात रास्ते !

2015