भूमिका (प्रकाश मनु) / प्रदीप शुक्ल
प्रदीप शुक्ल की बाल कविताएँ
प्रकाश मनु
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फेसबुक बहुत से मित्र लेखकों की तरह मेरा भी सिरदर्द है। बल्कि सिरदर्द गलत कहा। सच में तो वह गले की फाँस है। कभी एक भले मित्र की दोस्ताना सलाह पर खेल-खेल में यह फंदा गले में डाल लिया था। पर तब नहीं जानता था कि यह मजाक इतना भारी बैठेगा। कुछ दिन तो बड़ी रुचि और खूब इफरात से अपना समय इसमें खर्चता रहा। पर फिर लगा, जो काम-काज करना है, वह तो छूट ही रहा है। मनु भाई, आप तो गए काम से! और फिर भीतर किसी ने कहा, “भाग...भाग...भाग...!!”
तब से फेसबुक पर कभी-कभार जाता तो हूँ, पर वहाँ अपने अहं से इतराए लोगों की मैं...मैं..मैं और आत्मविज्ञापन इतना कुरुचिपूर्ण लगता है, कि वहाँ जाता बाद में हूँ, भागता पहले हूँ। पर सवाल यह है कि भागना ही है, तो जाता ही क्यों हूँ? इसका जवाब है, प्रदीप शुक्ल। मेरा मतलब, प्रदीप शुक्ल की कविताएँ...! क्यों, प्रदीप क्यों...? प्रदीप शुक्ल की कविताएँ क्यों...? इसलिए कि प्रदीप से और उनकी कविताओं से पहलेपहल मेरी मुलाकात फेसबुक पर ही हुई थी। वहाँ बीच-बीच में जो दीप्तिमान मणियाँ झलक जाती हैं, उन्हीं में से एक का नाम है, प्रदीप शुक्ल। मैंने फेसबुक के ‘समकालीन बाल साहित्य’ वाले मंच पर उनकी एक कविता पढ़ी, तो लगा, अरे, गजब की ताजगी है इसमें। एकदम नया अंदाज...! फिर दूसरी कविता पढ़ी, तो वही प्रतीति। यह कौन कवि है, जो इतना अच्छा लिख रहा है? एक नहीं, कई कविताएँ एक के बाद एक। तो पता नहीं कब, किस जज्बे में मैंने लिखा, “प्रदीप भाई, आपकी कविताओं की किताब छपे तो मुझे जरूर भेजिए। मैं उस पर लिखना चाहूँगा।”
और मैंने लिखा तो प्रदीप की कविताएँ हाजिर। ऐसी कविताएँ जो बच्चे ही नहीं, बड़ों का भी दिल मोह लें।...ऐसी कविताएँ जिन्हें पढ़कर बड़े भी कुछ देर के लिए तो जरूर बच्चे बन जाएँ। उन्हें न सिर्फ अपना बचपन याद आए, बल्कि वे उस अलमस्त खिलंदड़े बचपन में खो जाएँ और बिल्कुल बच्चे की आँखों से दुनिया को देखें।
हालाँकि उसमें केवल कल का बचपन ही नहीं था जो कभी प्रदीप ने जिया होगा, बल्कि आज के बचपन की नटखट, चुलबुली छवियाँ भी थीं। नया युग और नई सोच भी। नए युग का विज्ञान और आज के जमाने की बहुतेरी तब्दीलियाँ भी, जिनकी कल कोई उम्मीद भी नहीं कर सकता था। प्रदीप शुक्ल की बाल कविताओं में ये सब चीजें समरस होकर आती हैं और एक अनोखा आनन्दलोक-सा रच देती हैं। इस लिहाज से वे लगातार प्रयोग करते हैं और उनके अनुकूल नए से नए सुर तलाशते रहते हैं, जिससे कविता बड़ा ही मोहक कलेवर पहन लेती है। वह बार-बार होंठों पर आती है, दिल में झाँकती है और हमें रिझा लेती है। यों जाने कब उनकी कविताएँ पाठक को अपनी, बहुत अपनी कविताएँ कविताएँ लगने लगती हैं।
यह यकीन करना मुश्किल कि वे ऐसे कवि की कविताएँ हैं, जिसने मुश्किल से दो-एक साल पहले लिखने की शुरुआत की है। और वह भी फ़ेसबुक पर। आश्चर्य...! सचमुच प्रदीप शुक्ल सरीखे नए कवि का एकदम शुरूआत में ही ऐसे लचीले छन्द, भाषा की ख़ूबसूरत रवानी और बाँकपन वाला अन्दाज़ हासिल कर लेना एक ब़ड़ी उपलब्धि है, जिस पर किसी को भी रश्क हो सकता है। इसलिए सुपरिचित विषयों पर भी वे लिखते हैं, तो उनका अन्दाज़ एकदम अलग होता है, जिससे जानी-पहचानी चीज़ें भी बड़ी मोहक और लुभावनी हो जाती हैं। उदाहरण के लिए मुन्ना की यह गाड़ी —
दौड़ रही मुन्ना की गाड़ी
घुर्रम–घुर्रम घर्र,
लिए नगाड़ा मुन्नी पीछे
कुर्रम–कुर्रम कर्र।
दौड़ रहा वो पूरे घर में
पहने केवल चड्ढी,
उसके आगे से हट जाओ
बहुत तेज़ है गड्डी।
थककर दादी बैठ गई हैं
मचिया बोली, चर्र,
दौड़ रही मुन्ना की गाड़ी
घुर्रम–घुर्रम घर्र।
यहाँ घर्र, कर्र और चर्र ने जो समा बाँधा है, उसका आनंद लेने के लिए तो हमें एक बार फिर से बचपन की धमा-चौकड़ी और धूल-धक्कड़ वाले मैदान में आना पड़ेगा। इसी तरह बच्चे को चाँद अच्छा लगता है तो चाँद से उसकी दोस्ती हो जाती है। ऐसी पक्की दोस्ती कि चाँद का हाथ पकड़कर सोने और उससे नभ के अनोखे क़िस्से सुनने की कल्पना भी उसके मन में जागती है —
अच्छा होता चाँद हमारे
घर के ऊपर होता,
कभी-कभी रातों में उसका
हाथ पकड़कर सोता।
आसमान की सारी बातें
वो मुझको बतलाता,
रूठ गए तारों के किस्से
गाकर मुझे सुनाता।
यह कविता चाँद पर लिखी गई है, पर उससे भी ज्यादा यह बच्चे के मन की कविता है जो चाँद को ऐसा राजदार दोस्त बना लेता है, जैसे सिर्फ़ लँगोटिए यार होते हैं। ऐसे ही बच्चे के मन पर लिखी गई एक और बड़ी ख़ूबसूरत कविता प्रदीप के यहाँ है, जिसमें बच्चा बहुत कुछ कर गुज़रना चाहता है। वह हवाओं के संग खेलना चाहता है, घटाओं के गाल छूकर देखना चाहता है और तितलियों की तरह मुक्ति के आकाश में उड़ना चाहता है —
मन करता है
छू कर देखूँ गाल घटाओं के,
मन करता है
मैं भी खेलूँ संग हवाओं के।
देखो तितली उड़ी जा रहीं
लेकर रूप सलोना,
खेल रहीं बारिश की बून्दें
समझें उन्हें खिलौना।
पीछे हैं
तितली के बच्चे अपनी माँओं के,
मन करता है
मैं भी खेलूँ संग हवाओं के।
जहाँ बच्चे हैं, वहाँ हलचल तो होगी ही। ख़ूब धूम-धड़ाका भी होगा और गला फाड़कर चिल्लाने वाला शोर भी। आखिर बच्चे इसी तरह तो अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं और इससे बड़ों की दुनिया में भी थोड़ी हलचल, थोड़ा फेरबदल तो होता ही है। बड़े शुरू में नाराज़ होते हैं, मगर फिर हँस भी पड़ते हैं। यहाँ तक कि पापा-मम्मी अगर एक-दूसरे से नाराज़ हों, तो बच्चों का शोर-शराबा थोड़ा-सा उन्हें जोड़ता तो है —
गला फाड़कर हम चिल्लाएँ,
आओ बच्चो, शोर मचाएँ।
सण्डे नहीं, आज मण्डे है
पापा का तो वर्किंग डे है,
हम बच्चों की तो छुट्टी है
मम्मी-पापा की कुट्टी है।
आपस में वो ना बतियाएँ,
आओ बच्चो, शोर मचाएँ।
सचमुच यह बच्चों की अलमस्त धमाचौकड़ी की दुनिया ही तो है, जिससे रूठे हुए चेहरों पर मुसकान आ जाती है। अब मम्मी ख़ुश हैं, पापा ख़ुश हैं और बच्चों की शैतानियों पर और नया रंग आ गया है —
पापा अभी-अभी निकले हैं
बाहर जाते ही पिघले हैं,
मम्मी को है फ़ोन लगाया
मम्मी का चेहरा मुसकाया।
बुझे हुए रँग वापस आए,
आओ बच्चो, शोर मचाएँ।
इतनी बारीक बातें बच्चों की कविता में लाना और इतनी मजेदारी से उसे निबाह ले जाना, यह कोई छोटी बात नहीं है। इससे यह भी पता चलता है कि प्रदीप की बाल कविता एक नए जमाने की कविता है, जिसमें आज के समय की बहुत सी सच्चाइयाँ, मनोभाव और गतिविधियाँ भी गुँथ सी गई हैं।
और फिर गाँव के परिवेश और किसानी जीवन की बातें प्रदीप शक्ल जिस तरह अपनी बाल कविताओं में लाते हैं, उससे उनकी बाल कविताओं में कौतुक और सरलता का मिला-जुला एक नया रंग आ गया है। इनमें गाँव के दुख-दर्द और ग़रीबी की चित्र हैं तो उस सरलता के भी, जो हमारी आज की शहराती दुनिया में बड़ी कौतुक की वस्तु बन गई है। प्रदीप को इसकी सही पहचान है और जब वे बाल-कविताओं में इसे लाते हैं, तो रंग जम जाता है—
आओ तुम्हें ले चलें, गुल्लू के गाँव,
घुसते ही मिलेगी, पीपल की छाँव।
दो ताल बड़े-बड़े, एक है तलैया,
लो जी ये आ गई, गुल्लू की गैया।
सड़क से गाँव तक, बिछा है खड़ंजा,
कट गए पेड़, हुआ टीला अब गंजा।
गाँव में बैलों की, बचीं दो जोड़ी,
किस्सों में मिलेगी अब लिल्ली घोड़ी।
सूख गए कुएँ सब, चला गया पानी,
कुएँ में मेढक की, बची बस कहानी।
गुल्लू के कई दोस्त, गए हैं कमाने,
छोड़ दी पढ़ाई क्यों, गुल्लू न जाने।
गुल्लू के गाँव में, बिजली के खम्भे,
गुल्लू के सपने हैं, गुल्लू से लम्बे।
पढ़ता है ख़ुद गुल्लू, सबको पढ़ाता
काका को अख़बार, पढ़कर सुनाता
पहन लो जूते, नहीं चलो नंगे पाँव,
अभी बहुत बाक़ी है, गुल्लू का गाँव।
इसी तरह गाँव में कम्प्यूटर आया तो क्या-क्या तमाशे हुए, यह भी जरा जानना चाहिए। प्रदीप की कविता इसे बड़े खिलंदड़े रूप में पेश करती है—
गुल्लू का कम्प्यूटर आया,
पूरा गाँव देख मुसकाया।
दादी के चेहरे पर लाली,
ले आई पूजा की थाली।
गुल्लू सबको बता रहा है,
लाइट कनेक्शन सता रहा है।
माउस उठाकर छुटकू भागा,
अभी-अभी था नींद से जागा।
अंकल ने सब तार लगाए,
गुल्लू को कुछ समझ न आए।
इसके बाद जब कम्प्यूटर चालू हुआ और इण्टरनेट पर गूगल में डालकर कुछ भी खोजने की बात आई तो कक्का को अपनी गुमी हुई भैंस याद आ गई, “कक्का कहें चबाकर लइया,/मेरी भैंस खोज दो भैया।/बड़े जोर का लगा ठहाका,/खिसियाए से बैठे काका।”
आज किसानी जीवन पर लिखने वाले कवि बहुत कम हैं। इस लिहाज से इतने आत्मीय परस के साथ गाँव और गाँव के लोगों को बाल कविता में लाना और कविता की शर्त पर लाना सचमुच एक बड़ी उपलब्धि है।
मगर ये तो प्रदीप शुक्ल की बाल कविताओं के कुछ ही रंग हैं, जो जहाँ-तहाँ से उठा लिए गए हैं। उन पर सच में विस्तार से लिखा जाना चाहिए। इसलिए कि बाल कविताओं में इतनी दमदार शुरुआत करने वाले कवि हमारे यहाँ बहुत अधिक नहीं हैं।
वे लिखें, बहुत लिखें, बहुत ख़ूबसूरत लिखें और तमाम प्रलोभनों से बचकर बच्चों की दुनिया और आज के समय की सच्चाइयों से जुड़कर लिखें, अपनी बाल-कविताओं में और ज्यादा बचपन के रंग बिखेरें, यह मेरी ही नहीं, बहुतों की आशा और उम्मीद है। प्रदीप शुक्ल आज की बाल-कविता के एक ख़ूबसूरत सितारे हैं, इसकी चमक और झिलमिलाहट कभी मन्द न हो, यह कामना करते हुए अब मैं ओट होता हूँ। आप प्रदीप शुक्ल की बाल-कविताएँ पढ़िए और उस विशाल ताल में बार-बार डुबकियाँ लगाइए, जिसमें बड़ी चटुल लहरें हैं और बड़ा ही निर्मल पानी। तब आप जान पाएँगे कि प्रदीप शुक्ल की कविताएँ औरों से अलग क्यों हैं और उनमें कैसी दुर्लभ मणियाँ पिरोई हुई हैं।
इस नवोदित, मगर बेहद सम्भावनापूर्ण कवि को मेरी सच्ची और प्यार भरी शुभ कामनाएँ!
प्रकाश मनु
545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008