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भेड़ियों से गुत्थगुत्थ / विमल कुमार

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मैं रोज़ लड़ता हूँ
अपने भीतर छिपे भेड़ियों से
जो दिन-प्रतिदिन होते जा रहे हैं
खूँखार

लड़ता था रात में
अपने बिस्तर पर
नींद टूटने पर सुबह-सुबह
नहाते वक़्त
गुसलख़ाने में भी
रास्ते में, बाज़ार में भी

ये भेड़िये हैं
इन्हें माँस चाहिए
ये किसी गुफ़ा में
सोना चाहते हैं थोड़ी देर के लिए निश्चिन्त
वक़्त से ये भी परेशान हैं
कुछ सुख पाना चाहते हैं

पर मैं नहीं चाहता
इन भेड़ियों के लिए झूठ बोलूँ
कोई जाल रचूँ किसी के इर्द-गिर्द
अपनी आत्मा को बेचूँ
धोखा दूँ किसी को
दाना डालूँ किसी चिड़िया के आगे

सुख किसे नहीं चाहिए !
मुझे भी
पर इस सुख के लिए
मैं गिरवी नहीं रख सकता
अपनी आत्मा को
गहरा अन्तर्द्वन्द्व है मेरे मन में अभी भी

मुझे डर है
मैं कहीं अपनी लड़ाई न हार जाऊँ
आख़िर मैं भी किसी से
प्यार करता हूँ

लेकिन भेड़िये भी ऐसे हैं
जो बीच-बीच में गुर्राते हैं
अपने दाँत पैने करते हैं
अपने पंजे दिखाते हैं
माँस के लोथड़े
और गुफ़ा के लिए
रक्त-पिपासू और
हिंस्र होना ठीक नहीं है
क्या ये भेड़िये
प्रेम के भूखे हैं

मैं उनसे हर रोज़ लड़ते हुए
यही एक सवाल करता हूँ
छोड़ दो माँसाहार
शाकाहारी हो जाओ
पर एक जवाब उठता है मेरे भीतर
और भेड़िये फिर नज़र आते हैं
लाल आँख किए अपनी

मैं दौड़ रहा हूँ अभी-अभी उन भेड़ियों के पीछे जंगल में
और सपने में गुत्थगुत्थ हो गया हूँ ।