भेद / लीलाधर जगूड़ी
जो पुलिस था उस आदमी ने सपना देख कि वह पुलिस नहीं है
टाफियाँ माँगते माँगते बच्चे आए। सपने के
खेल ही खेल में उसे रस्सी से बाँधने लगे
सामने से एक लड़की आई
और पास आते-आते औरत हो गई
मगर पुलिसवाला खुद को रस्सी से नहीं छुड़ा सका।
फिर वही औरत आई
और बच्चों को खदेड़ कर ले गई जैसे उसी के हों
जब पुलिसवाला पुलिस लाइन में यह सपना बखान कर रहा था
तब उसके पुलिस दोस्तों ने कहा
अरे! वे बच्चे हम रहे होंगे
और वह औरत
हमें बड़ा बनाने के लिए कहीं ले गई होगी
जो पुलिस नहीं रह गया था सपने में उसने कहा
थोड़ी देर बाद वह औरत फिर आई
मैंने खूब पहचाना कि वह मेरी औरत है
और वे बच्चे मेरे बच्चे हैं
तब क्या मैं तुम्हारा बाप था?
सारे के सारे वे बड़े जोर से हँसे
उस समय मैं एक होटल जैसे में चाय पी रहा था
होटल का जो एक लड़का था
डरा हुआ आया और कहने लगा
पुलिस लाइन में आज क्या हो गया
पुलिस लाइन में पुलिस पर पुलिस हँस रही है
पुलिस लाइन में आज क्या हो गया
'पुलिस हँस रही है! पुलिस हँस रही है!'
कहता हुआ वह लड़का वहीं पर ढेर हो गया
मेरी बगल से एक चाय पीते
नमकीन खाते आदमी ने गोली चला दी थी
'साले, भेद खोलते हो'
अब मैं सोच रहा हूँ कि क्या सुबह हो गई है
क्या मैं सपने से बाहर हो गया हूँ
क्या मेरा यह सोचना ठीक है
कि अपना यह सपना
किसी के आगे बखानूँ या न बखानूँ ?