भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भौंरा छै मडराय / अनिल कुमार झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

स्वागत करो वसंत के, ऐलौ छै बौराय,
कली-कली के कामना, भौंरा छै मडराय।

छिपी-छिपी केॅ खिली खिली फूलै छै है रंग
हवा रूकी रूकी केॅ बही बही पीने गेलै भंग,
देह कस कसी खाय छै लेने गेलै उड़ाय
कली-कली के कामना भौंरा छै मडराय।

प्रेम हृदय के कोर में आबी डालै बीज
मोन फेनु पगलाय छै व्यर्थ सभे ताबीज,
गाँव सीमानोॅ पे गोंसाय बैठी फगुआ गाय
कली-कली के कामना भौंरा छै मडराय।

जगत जहान घुमी-फिरी फैलने दुनोॅ हाथ
पौन्होॅ ई वसंत छै मस्ती लेने साथ,
घोॅर अंगना सब लिहोॅ निपी के चमकाय
कली-कली के कामना भौंरा छै मडराय।