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मचान पर / केशव
Kavita Kosh से
धुएँ की दीवार पर बैठ
खो गए कहीं वे दिन
खिड़की में मुँह डालकर जो
भर देते थे घर को
उजली खिलखिलाहटों से
फूल, तोड़ा जिन्हें हर रोज़
गुलदस्ते के लिये
दिखाई देते हैं अब
कैलेंण्डरों पर
जाने क्या हो गया है
हर साल
खिड़की पर लौटने वाली
चिड़िया को
शीशा हो गए गीत
जिन्हें अंधेरों पर धर
खेतों की मेंढ़-मेंढ़, घाटी-घाटी
पगलाया फिरता था मन
किसी सहमें हुए अतिथि की तरह
द्वार
खटखटाते हैं दिन
चिड़ियों का इस तरह खो जाना
दिनों का अतिथि हो जाना
छोड़ जाता है हमें
एक मचान पर.