मध्यवर्गीय विजयवर्गीय / कुमार अंबुज
उनका सपना यही था कि तनख़्वाह से चला लूँगा घर-बार
कभी सुन लूँगा संगीत, घूमूँगा-फिरूँगा, मिलूँगा-जुलूँगा सबसे
लेकिन नामाकूल पैकेज देकर चलवाए जा रहे हैं उनसे
तमाम बैंक, शो-रूम, मॉल, सुपर बाज़ार
जहाँ बजता ही रहता है वह लोकप्रिय संगीत
जो परिवार में भर देता है अटपटी रफ़्तार
एक गजब का ज्वार
इस तरह विजयवर्गीय हैं एक मध्यवर्गीय बेकरार
एक अधूरे नागरिक, एक अधूरे ख़रीददार
पूरा होने के लिए आज़ाद लेकिन चाकरी है चौदह घण्टे की
वे आज़ाद हैं मगर उन्हें ऑफ़िस में ही मिलती है रोटी और चाय
वे आज़ाद हैं लेकिन इन्द्रधनुष देखे गुज़र गए ग्यारह साल
उधर बढ़ते ही जाते हैं अजीबो-ग़रीब सामान बनानेवाले कारख़ाने
इधर खिड़की से ग़ायब हो जाते हैं खेत, नदियाँ, पेड़ और पहाड़
दिखने लगता है अट्टालिकाओं का कबाड़
उनके घर में भी जुटता चला जाता है सामान-दर-सामान
इतना कि वे समझ जाते हैं यदि एक शब्द भी बोले ख़िलाफ़
तो उनके पास खोने के लिए कितना कुछ है एक साथ ।