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मन अजंता / अभिज्ञात
Kavita Kosh से
किस तरह हमसे निभेंगे
ये नियम, चौरास्तों के
हम तुम्हारी याद में
जलते हुए, अवकाश है!
हर विविधता रास आए
मैं रसिक इतना नहीं हूँ
हर डगर की बाँह गह लूँ
मैं पथिक इतना नहीं हूँ
इक झलक अपनी दिखाकर
मेरे स्वप्नों को रिझाकर
हे प्रिये, तुम ही नहीं
लौटे कई मधुमास हैं!
है कई जन्मों का नाता
भावना की इस लगन में
वरना राहत क्यों अनोखी
शूल-सी गहरी चुभन में
तुम मिलोगी प्यास की
घाटी सदा गाए यही, पर
मोह के तावीज़ में भी
खोखले विश्वास हैं!
रूठ कर जाने लगीं
तरुणाइयाँ तो क्या हुआ
अपना रिश्ता तोड़ लीं
शहनाइयाँ तो क्या हुआ
साँस जब तक है, रचेगी
रास की डोली सजेगी
मन अजन्ता ने कभी
पाया नहीं संन्यास है