मन का तार / नरेन्द्र शर्मा
जितनी भूख-प्यास, मन, तेरी—
उतना प्यार मिलेगा कहाँ?
तेरा अहं इदम बन जाए,
वह अधिकार मिलेगा कहाँ?
लग्न-राशि गोचर ग्रह देखे,
पर विचार कर सका न लग कर!
केंद्र जगत का माना निज को,
न्योछावर मन हुआ न जग पर!
मन, तुझ पर जो न्योछावर हो,
वह संसार मिलेगा कहाँ?
मिलता है संसार प्रेम से,
प्रेम निरंतर आत्म-दान है!
पाने की अभिलाष-आश में,
मन, तू भिक्षुक के समान है!
द्वारे-द्वारे हाथ पसारे,
जीवन-सार मिलेगा कहाँ?
भोगी योगी और वियोगी—
मन का ऐसा मनमानापन!
मन के हाथ नहीं आया जग,
मेरे हाथ नहीं आया मन!
बहुत जताया अपनापन, पर
मन का तार मिलेगा कहाँ?
मन बालक है, प्रभु अभिभावक,
मेरे मारे मन न मरेगा!
अमृत-पुत्र मन मृत्यु-क्षेत्र को
भूल-भटक कर पार करेगा!
गाता रहता मन कि प्रेम का
पारावार मिलेगा कहाँ?