मन की बांसुरी / शुभा द्विवेदी
क्या होता है समर्पण का कोई मूल्य
क्या होता है प्रेम का मूल्य
चुटकी भर नमक जैसा ही तो है प्रेम
जो देती हूँ तुम्हे कृष्ण
बिना इसके तो जीवन का स्वाद ही कसैला हो जायेगा
प्रेम का मूल्य तो स्वयं प्रेम भी नहीं है
पूर्णता में छिपी अपूर्णता जैसा प्रेम
जिसमें सामर्थ्य है अपने साथ बहा ले जाने की
हर आती सांस में मिलन का आभास देता प्रेम
हर जाती सांस में विरह की वेदना देता प्रेम
यही प्रेम है जो दे रही हूँ तुम्हे कृष्ण
जब मूल्य चुकाने की बात करते हो
लगने लगते हो दूर
आश्चर्य होता है, या अविश्वास होता है स्वयं पर
ये केसा प्रेम किया मैंने जो व्यापार लगा तुम्हे
क्योँ समझ लेते हो इतना हल्का मुझे
विश्वास दिलाती हूँ,
मन क्रम वचन से तुम्हें ही साक्षी मान कहती हूँ
प्रेम की अपेक्षा भी नहीं है तुमसे
जानती हूँ तुम मेरे नहीं हो
वरन संपूर्ण सृष्टि के कण-कण में समाये हो
सुन्दर रचना है तुम्हारी
समाया है जिसमें नित नूतन उल्लास तुम्हारे समग्र प्रेम का
सुनाई पड़ता है जिसमे अनहद नाद तुम्हारे प्रेम का
दूर से ही आत्मसात करती रहती हूँ तुम्हारे सप्त स्वरों को
जो निकलते है तुम्हारे मन की बांसुरी से।