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मन की साख / माखनलाल चतुर्वेदी

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मन, मन की न कहीं साख गिर जाये,
क्यूँ शिकायत है?-भाई हर मन में जलन है।
दृग जलधार को निहारने का रोज़गार--
कैसे करें?-हर पुतली में प्राणधन है।
व्यथा कि मिठास का दिवाला कैसे काढ़े उर?
कान कहाँ जायें? लगी प्राणों से लगन है।
प्यार है दिवाना उसे कुछ भी न पाना
वह तेरे द्वार धूनियाँ रमाने में मगन है।

रचनाकाल: खण्डवा-१९४५