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मरूभूमि री रोई / राजू सारसर ‘राज’
Kavita Kosh से
चानणीं रात
दूर परभात
आभै रै आंगणै
तारा खेलै
लुक मिंचणीं।
चांद रै चानणैं
खेजड़ै री छियां
पीडौ ढाळ
लांबा-लांबा
तांत राळती
चरखौ कातती
बूूढकी री
पुरवाई लोर्यां सूं
गैळिजिया पड़्या है
काळींदर, गोयरा।
कठै ई दूर सूं आवै
भिणभिणांवती सी
गादड़ां रै
कूकण री आवाज।
लूंकी आ, जा ! वा, जा् !
मार छबाक।
हुरड़ी कर’र भाजणियां
भंभूळिया
आखै दिन रा,
थाकैड़ा,
सूत्या पड़या है
गै’री नींद।
आ सप-सप
गौर सूं सुण
स्यात उण धौरै री
बरक ओ’लै
ठण्डी बेकळा में
आंगळयां मारती
पून बांठां सूं करै हथाई
आपरा अणभव बतावै।
दूर खड़यौ खेजड़ौ
मून धारयां
सुण्यां जावै।
अै मंूघा चितराम
पग पग लाधै
जणा आ मरूभूमि री
रसीली रोई
सायरां रो सुरग बाजै।