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महत्वाकांक्षा / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
मैं दीवार पर ठुंकी
वह कील हूँ
जिसने ज़िन्दगी भर
तुम्हारी महत्त्वाकांक्षाओं की
इंद्रधनुषी
तस्वीर का बोझ उठाया
किसी ने नहीं जाना
किसी ने नहीं देखा
उस बोझ की पीड़ा का दर्द
तुमने भी तो नहीं
तुम समझ ही नहीं पाए
या शायद समझ कर भी
अनजान बने रहे
मैं तुम्हें सर्वांग पढ़ती रही
गुजरती रही
तुम्हारी अनुभूतियों से
सागर-सी विशाल
तुम्हारी महत्त्वाकांक्षाओं के
ज्वार से
मैं जानती हूँ
मैं कमजोर पड़ी
तो तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा भी
कमजोर पड़ जाएगी
उसे भूमिशाई होने से
बचाने को मैंने
एक लंबा युद्ध लड़ा है
क्या तुम जानते हो