महामारी: कुछ कविताएँ / कौशल किशोर
1,
मनुष्य को पॉजिटिव होना चाहिए
सारी जिन्दगी
यही कोशिश रही कि पॉजिटिव रहूँ
दिखूं भी ऐसा ही
पर यह क्या?
जब मेरी रिपोर्ट पॉजिटिव आई
जी धक्-सा रह गया
चेहरे का रंग फीका पड़ गया
डर जो बाहर था
वह कहीं गहरे मन में बैठ गया
देखा, वह सारे घर में पसरा था
अब इस दुनिया से अलग मेरी दुनिया थी
हर चीज मेरे लिए अलग-अलग
जैसे घर में बंटवारा हो गया हो
बच्चे जो हमेशा मेरे कंधे पर सवार रहते थे
वे भी पास फटकने से डरते
उन्हें गोद में नहीं ले सकता था
चूमना तो दूर की बात थी
दोस्तों से हाथ नहीं मिला सकता था
किसी को गले नहीं लगा सकता था
पत्नी जो सारी जिन्दगी साये की तरह रही
वह भी पास आने से डरती
इतनी दूर रहती कि मैं उसे छू नहीं सकता था
महामारी ऐसी आई
जो मनुष्य को अकेला कर गई
मनुष्यता की परिभाषा ही नहीं
शब्दों के भाव भी बदल दिये
यहाँ, पाजिटिव होना अस्पृश्य होना है।
2,
सुख हो या दुख
हम सब साथ रहे हैं
किसी के घर शहनाई बजी
हमने ठुमका लगाया
जो नहीं कर सकते थे नृत्य
उन्होंने भी हाथ-पैर चलाये
मुसीबत आई
तो उस बोझ के नीचे सबका कन्धा था
महामारी ऐसी आई कि
उसने जिन्दगी के मायने
जीने के रंग-ढंग सब बदल दिए
हम संक्रमित हुए
उस वक्त कोई नहीं था
अकेलेपन का साथ था
ऐंम्बुलेंस आई
उसमें से पीपी किट पहने जवान उतरे
वे यमदूत से लगे
घर न देख लें
सबने अपने दरवाजे बंद कर लिए
हमने मिलजुल बसाई थी जो दुनिया
वह मोतियों की माला थी
झटका लगा और मोतियाँ बिखर गईं।
3,
सांसों की जंग छिड़ी थी
शहर सौदागरों के कब्जे में था
बोली लग रही थी
एक के दस, दस के बीस...
उसे आक्सिजन का
खाली सिलिण्डर क्या मिला
लगा, आधी जंग जीत ली है
वह भागा प्लांट की ओर
लाइन लम्बी थी, पर धीरज का साथ था
तभी विस्फोट हुआ, उसके परखचे उड़ गये
बापू की सांस बचाने गया था
वह अपनी सांस गवां बैठा।
4,
यह जंग है
जीवन बचाने की नहीं, मौत से बचने की जंग है
महामारी मौत बनकर आयी है
चारो तरफ जो फैला है, वह उसी का डर है
विषाणुओं ने भी बदल लिया है
अपना रूप, रंग, ढंग, चाल
और मार की धार
हवा में तैरता
हवा से मार करता
कब बना ले अपना शिकार
लोग भाग रहे हैं
वह दिखता नहीं, पर वार ऐसा
कि लोग भागे जा रहे हैं
स्वप्न में जैसी दौड़ लगती है, ऐसी ही दौड़ है यह
फेफड़ा छलनी हो गया है
सांसें घुट रही हैं
सामने उम्मीद है
लोग उम्मीद में जिन्दा गये
और लाश बनकर बाहर आये
यह जो उम्मीद है, इसमें कोई उम्मीद नहीं
यह आदमी को लाश में बदलने की फैक्ट्री है
यहाँ जीना कठिन है, मरना आसान
हिन्दुस्तान में फैल रहा है, श्मशान और कब्रिस्तान।
5,
गंगा में बहती लाशें!
चौंकाने वाली खबर!
आखिर खबर ही तो है
अन्य खबरों की तरह
यह भी बासी हो जायेगी
लाशों को ठिकाने लगा निपटा दिया जायेगा
जांच बैठेगी, रिपोर्ट आयेगी नहीं
खबरों के नीचे दब जायेगी खबर
लोगों को भूलने में देर ही कितनी लगती है
लेकिन जिनका दर्द
आंसुओं की नदी बन गया है
जिसमें डूबे हैं और लाश बन उतरा रहे हैं
उनके अपने जन
वे क्या भूल पायेंगे कभी
कि क्यों हुआ और कैसे हुआ
यह दर्द बार-बार सीने में उठेगा
और परेशान करेगा
इस दर्द को जिन्दा रखना है
जिन्दा रखना है इस दर्द को
यही आवेजक कल काम आयेगा।
6,
पृथ्वी अपनी धूरी पर घूमती है
सूर्य की परिक्रमा करती है
चन्द्रमा पृथ्वी के चारो ओर चक्कर लगाता है
सब गतिमान है, चलायमान है
न समय रुकता है, न जिन्दगी
कुछ भी थिर नहीं, स्थिर नहीं
किसी को आराम नहीं
महामारी क्या आई
कि जिन्दगी ठहर-सी गयी
पानी की तरह तरल व प्रवहमान वह
बर्फ-सी जमी जा रही है
पांव जिनकी अपनी गतिकी है
वे थम से गये हैं
गनीमत है कि थोड़ी-सी सांस बची है
वह कभी भी जड़ छोड़ सकती है
यह घर नहीं, घर का बिस्तर नहीं
अस्पताल का बेड है
इसे पाना भी किसी जंग से कम नहीं
एक नहीं, तेरह दिन हो गये
जिन्दगी इस पिंजड़े में सिमट कर रह गयी हैद्य
7,
बच्चा रो रहा है
रोते रोते वह चीखने लगता है
उसकी चीख ऐसी कि कलेजा मुंह को आ जाए
श्मम्मी...पापा...मम्मी...पापा...श्
पड़ोसी संभाल रहे हैं
पर कुछ भी संभल नहीं रहा है
कौन समझाए उसे कि
अब नहीं आयेंगे उसके मम्मी-पापा
वह पूछ बैठा कि क्यों नहीं आयेंगे
किसी के पास जवाब नहीं
श्मशान घाट के रजिस्टर से बाहर जो रह गये
उन्हीं में शामिल हैं मम्मी-पापा
नगर महापालिका के बही-खाते में
कहीं दर्ज नहीं है उनकी मुलाकात
अस्पताल का कंप्यूटर भी उनके बारे में
मुंह खोलने को नहीं तैयार
बालू की भीत पर टंगा है भविष्य
किस्से एक नहीं हजार हैं
हजार नहीं लाख हैं
कि लाख के पार हैं
लाइन लम्बी है
पंजीयन दफ्तर का दरवाजा बंद है
बाहर शोर है, बड़े-बड़े दावे हैं
कि दावे ही दावे हैं...
आंकड़े भी खेल है
यह जिन्दा और मुरदा के बीच का खेल है
टीमे बन गयी हैं और खेल जारी है।
8,
बच्चों का पार्क हैं
पार्क को बच्चों का इंतजार है
उसकी रौनक और खूबसूरती उन्हीं से है
और बच्चे घरों में बन्द हैं
पेड़ों पर फूल मुरझा गये हैं
वे असमय तोड़ लिए जाने से नाराज भी होते थे
अब उदास हैं
पंखुड़ियों पर कोमल हाथों का स्पर्श
एक अलग सुखानुभूति थी
वे बस यादे हैं
बच्चों के लिए ही पार्क में झूले हैं
चरखी है, किसिम-किसिम के स्लाइड्स हैं
सब दर्शन के हैं
बच्चे नहीं तो ये किस काम के
यही हाल है क्रिकेट के बैट और बॉल का
घर के किसी कोने में पड़े ऊंघ रहे हैं
बच्चे ललचाई आंखों से पार्क को देखते हैं
उन्हें बन्धन में रहना पसन्द नहीं
वे बाहर निकलना चाहते हैं
और मौका मिला नहीं कि आँख चुराकर भाग निकलते है
हिदायतों की जो लछ्मण रेखा खींची गयी है
उसकी ऐसी-तैसी कर वह सब करना चाहते हैं
जो उनकी इच्छा है
और इसी इच्छा पर डर के दैत्य का हमला है।