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महुवा / शमशेर बहादुर सिंह
Kavita Kosh से
यह अजब पेड़ है जिसमें कि जनाब
इस कदर जल्द कली फूटती है
कि अभी कल देखो
मार पतझड़ ही पतझड़ था इसके नीचे
और अब
सुर्ख दिये,सुर्ख दियों का झुरमुट
नन्हें-नन्हें,कोमल
नीचे से ऊपर तक -
झिलमिलाहट का तनोबा मानो-
छाया हुआ हैयह अजब पेड़ है
पत्ते कलियां
कत्थई पान का चटक रंग लिये -
इक हंसी की तस्वीर -
(खिलखिलाहट से मगर कम- दर्जे)
मेरी आंखों में थिरक उठती है
मुझको मालूम है ,ये रंग अभी छूटेंगे
गुच्छे के गुच्छे मेरे सर पै हरी
छतरियां तानेंगेः गुच्छे के गुच्छे ये
फिर भी,फिर भी, फिर भी
एक बार और भी फिर भी शाम की घनघोर घटायें
-आग-सी लगी हो जैसे हर -सू-
सर पै छा जाएँगी :
कोई चिल्ला के पुकारेगा ,कि देखो,देखो
यही महुवे का महावन है !