माँ / शशि सहगल
माँ शब्द सुनते ही
ज़हन में उग आती हैं तीन पीढ़ियाँ
और माँ झांकने लगती है
अतीत के झरोखों से
कभी चीटियों को मारने से रोकती मुझे
और कभी
झुनझुने वाले से दूर ले जाती हुई।
पता नहीं कब उसने
पहली बार समझाया था
आदमी और औरत का फर्क
आदमी आदमी होता है
हर हक का मालिक
और तभी मैंने समझा था
क्यों वुजूद ख़त्म हो जाता था उसका
पिता के सामने।
वैसे तो माँ
सदा कुछ न कुछ करती रहती
लेकिन कोई भी काम
इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा
कि बन सके उसका दस्तावेज़।
मैंने सदा उसे काम ही करते देखा
खाते नहीं, खिलाते हुए
चुन्नी से माथे का पसीना पोंछते
हमारी आँखों की तृप्ति में सुख पाते देखा
कई मौसम आये और गये
माँ अब वैसी नहीं रही
टपकती झोंपड़ी सी हो गई थी माँ
फिर भी लोगों के बीच
कोई प्रतिष्ठा नहीं थी उसकी
यद्यपि माँ अब नहीं है
फिर भी आसपास बनी रहती है
हवा सी
निषिद्ध कामों से रोकती है मुझे।
मैं उसकी उपस्थिति
और अधिक महसूस करती हूँ
उसके जाने के बाद।
अब मैंने संभाल लिया है उसका पद
बेटी और नाती के लिए
अब मैं माँ हूँ
पर नहीं काँपता मेरा तन
घर और बाहर दोनों संभालते हुये
बनाये रखती हूँ संतुलन
फिर भी मन के गह्वर में
भीतर कहीं कुछ सालता हुआ
अपरिभाषित ही रह जाता है।
पूर्वदीप्ति से कौंधती है
माँ की बात
आदमी आदमी हेाता है
हर हक का मालिक
और हवाओं का रुख पहचानती
मेरी छठी इन्द्री
शिष्टाचार वश
खुशी खुशी कर देती है मुझे
अनचाहे समझौतों के हवाले।
समय की तीसरी दस्तक
मेरी बेटी
जीवन की गति को और तेज़ करती
पत्नी, माँ और गृहणि का फर्ज़ निभाती
अहम् की परिभाषा
समझाती है मुझे ही मेरी जायी
पर वो क्या है?
जो हम तीनों माओं को बांधता है
एक निश्चित हदबन्दी में।
क्या वो
या यह?