माँ : दो कविताएं / शहंशाह आलम
एक
जब घरों में खिड़कियां नहीं थीं
किवाड़ नहीं थे अनंत विशाल
राजा नहीं थे मंत्री नहीं थे
भयावहता नहीं थी
इतिहास नहीं था
माँ थीं
नानबाई ने रोटियां
लकड़हारे ने आरियां
कश्तीवान ने कश्तियां
नाटककार ने दृश्यावलियां
मज़दूरों ने बस्तियां
दर्शकों ने तालियां
गणितज्ञ ने दिन मास साल सदियां
वैज्ञानिकों ने अंतरिक्षयान उड़नतश्तरियां
समुंदर ने सीपियां
माँ ने इस धरा को
और हमें किया परिपूर्ण
माँ पृथ्वी पर सबसे चर्चित महिला होतीं
अगर हमारे भीतर का पुरुष
कि़ले चहारदीवारी घर के अंधेरे में
उन्हें क़ैद करके नहीं रखता
माँ अब तक की सबसे लंबी कविता हैं
दो
माँ सहेजकर रखती हैं दियासलाई
दियासलाई के पास मां का पता तब से है
जब से दियासलाई ईजाद हुई है
घर की बेकार वस्तुएं
माँ को मुकम्मल तरीक़े से जानती हैं
माँ के कारीगर हाथों की बदौलत
बेकार वस्तुएं नए-नए रूप धरकर
फिर से हमारी ज़िंदगी में शामिल हो लेती हैं
माँ के मरने के बाद
माँ नहीं होंगी
दियासलाई की आंच होगी
और बेकार वस्तुओं के ज़िंदा रूप होंगे।