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माटी की महक / हरे राम सिंह
Kavita Kosh से
वे माटी की महक हैं
धान की फ़सल की तरह हरित
गुलाब-सा ख़ुशबूमान!
अपनी माटी से दूर
पहाड़ों पर
रेगिस्तानों के पार।
सागर के नीचे,
अन्तरिक्ष के पार।
लाँघ जाते हैं- सभ्यता के घेरे
जहाँ जाते हैं
बन जाते हैं- माटी की महक
पर छूतता नहीं उनसे
रामचरितमानस
होली के गीत
हनुमान जी का ध्वज।
तुलसी मॉरीशस में उगाते हैं
त्रिनिडाड में होली गाते हैं
हनुमान जी-से ध्वजा पर चढ़कर
पपुआ न्यूगनी हो आते हैं
वे अपनी ही माँ के बेटे हैं
धरती-सा दिल है उनका।
हज़ार वर्ष बाद भी लौटते हैं
अपनी माटी पर
होरहा की गंध में बंधे
होरी गाते हैं।