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मान जा... / योगेन्द्र दत्त शर्मा
Kavita Kosh से
पत्थरों के बीच से होकर
जिद न कर यों ही गुजरने की
मान जा, चटके हुए दरपन!
कब पिघलती है
किसी संवेदना से भीड़
कुचल ही जाता
बया का एक शापित नीड़
प्रतीक्षारत पांव की ठोकर
जिद न कर ज्यादा उभरने की
मान जा, मेरे हठीले मन!
जिन्दगी क्या है
अधूरी, अधकटी तसवीर
हर अपाहिज
वेदना है-द्रौपदी का चीर
यह अधूरापन, थकन ढोकर
जिद न कर खुद को कुतरने की
मान जा, रिसते हुए सावन!
बुझ रही चुपचाप
आंखों में उतरती शाम
भाल पर जलता
थका सूरज हुआ गुमनाम
गुनगुनाती आत्मीयता खोकर
जिद न कर हिमनद उतरने की
मान जा, मेरे अकेलेपन!