मापदंड / पंकज सुबीर
जीवन जब प्रारंभ होता है
तब हम इसे वर्षों में नापते हैं 
धीरे धीरे समय गुज़रता है 
साथ ही जीवन भी 
फिर हमें लगने लगता है 
कि वर्ष तो बहुत बड़ी इकाई है 
हम इसे महीनों में नापने लगते हैं 
जीवन फिर भी गुज़रता रहता है 
फिर वो समय आता है जब हमें 
महीना भी बड़ा लगने लगता है 
हम जीवन को सप्ताहों में नापते हैं 
और फिर जीवन 
मुट्ठी में बंद रेत की तरह 
फिसलने लगता है 
हम विवश से उसे दिनों में नापते हैं 
फिर घंटों, मिनिटों 
और फिर क्षणों में 
हम नापने की इकाई 
जितनी छोटी करते जाते हैं 
यह उतनी तेज़ी से गुज़रता है 
हम क्षण के भी हिस्से कर देते हैं 
और फिर क्षण के किसी हिस्से में 
अचानक यह रुक जाता है 
सारी नाप तौल 
सारा लेखा जोखा 
रखा रह जाता है 
हमें ज्ञात होता है कि
किसी इकाई से नापा गया इससे
कोई फर्क नहीं पड़ता 
फर्क पड़ता है 
केवल क्षण के उस हिस्से से 
जिसमें गतियाँ रुकती हैं
मतियाँ रुकती हैं 
क्षण का वह हिस्सा 
नापा नहीं जा सकता 
किसी भी इकाई से।
	
	