मिट्टी का चेहरा (कविता) / राजेश जोशी
एक पारदर्शी बाज झपटता है
और एक छोटे मेमने की तरह
दम छोड़ भागता है
चाँद
कलादीर्घा में लगी
के. जी. सुब्रमण्यम की प्रदर्शनी में
लोग खड़े हैं
चमकदार दीवार पर टँगे
एक मिट्टी के चेहरे के सामने
एक मिट्टी का चेहरा !
जगह-जगह से तड़क गयी है इसकी मिट्टी
चेहरे पर पड़ती तेज रोशनी भी
खदेड़ नहीं पाती
दरारों में घुसा अँधेरा
एक मिट्टी का चेहरा !
कपाल पर चढ़ी त्योरियाँ
मुँह से बाहर झाँकते
बड़े-बड़े मिट्टी के दाँत
बड़ी-बड़ी जेबों वाले मिट्टी के कोट पर
लटक रहे हैं मिट्टी के तमगे
वह मिट्टी का चेहरा !
हमारे वक्त पर
जैसे कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया !
वह मिट्टी का चेहरा !
शताब्दियों पहले दफ़नाया जा चुका
कोई तानाशाह
अपनी टाँगें और जूते कब्र में भूलकर
हड़बड़ी में जैसे आ गया हो
आधा बाहर !!