मुक्ता अक्षर देखें हैं / प्रेमलता त्रिपाठी
स्नेह सिक्त भावों से भीगे, तन मन अंतर देखें हैं। 
माँ की कृपा सिंधु से उभरे, मुक्ता अक्षर देखें हैं। 
वाणी को जो तीर बनाते, धार बहुत इसमें होता, 
घायल करते कृत्यों कथनों से, चुभते नश्तर देखे हैं। 
खिले वाटिका फूल नहीं अब, बिखरे साँपों के डेरे
उगे नहीं पश्चिम से ऐसे, कभी दिवाकर देखें हैं। 
नीली अलसी सरसों पीली, खिलते निखरे खेत जहाँ, 
धन्य धान्य से पूर्ण धरा को, हंसते हलधर देखें हैं। 
क्षोभ व्याप्त हैं गलियाँ सूनी, दुःखी समाज है जन मन, 
रक्त रक्त हाहाकार यहाँ, जीवन बदतर देखें हैं। 
रग रग कंपित शीत लहर से, पथ ठिठुरे सिमटे जन को, 
मृत्यु आवरण धुंध कुहासा, घिरते अक्सर देखें हैं। 
प्रेम छलकतीं आँखें क्या, मजबूरी बदले मौसम, 
चुप हम रहते ऐसे सूखे, हृदय समंदर देखें हैं।
	
	