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मुखर संवेदनाएँ / लता अग्रवाल
Kavita Kosh से
सुनसान नीरव
सड़कों से गुजरते हुए
साथ हो ली
कुछ सिसकियाँ,
कुछ चीखें
ठोकरें ही हमारा नसीब हुई
किसी ने नहीं देखा
हमारा जख्मों को
न सहलाया
उपेक्षा भरी नजरों का
रहे शिकार सदा
है कोई जो सुने पुकार
हमारी भी
अपनाए प्यार से
मिले स्नेहिल छाया
देखा आस पास कोई नहीं
फिर ये चीख़, ये करुण क्रंदन
बन्द कर दिमाग़ की खिड़की
दौड़ाया मन को नंगे पांव
पाया सड़क के वह पत्थर।
हाँ! मैंने देखा है
पत्थरों को रोते
खून के आँसू बहाते
दर्द अपने सहलाते
संग ले आई झोली में भरकर
स्नेहिल छाँह तले
बना लिया घर का हिस्सा।