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मुख़्तलिफ़ अशआर / अजय अज्ञात

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एक भी ख़ूबी नहीं अज्ञात में
शाइरी के ऐब से भरपूर है

चैन से जब सो रहा था सत्य था
जागते ही आदमी मिथ्या हुआ

मेरा अपना अलग इक आसमां है
मुझे मालूम है परवाज़ की हद

शे‘र की आमद नहीं होती अगर
क्या ज़रूरी है ग़ज़ल कहना अजय

क़ाफ़िया है ग़म परेशानी रदीफ़
बह्र से ख़ारिज़ हुई है ज़िंदगी

क्या लगाओगे कहो क़ीमत मेरी
प्यार के दो बोल में बिकता हूँ मैं

न छापो तुम किताबों में बिना सर पैर की बातें
तुम्हारे शौक़ की ख़ातिर शजर को कटना पड़ता है

जिनको पढ़ना ही नहीं था वो न पढ़ पाये कभी
पढ़ने वाले जुगनुओं की रौशनी में पढ़ गए

सुनते हैं कि संगत का असर होता है लेकिन
रह कर गुलों के साथ क्यूँ कांटे नहीं महके

कमल ने कीच में खिल कर कहाँ मातम मनाया है
विषैला कब हुआ चन्दन भुजंगों के लिपटने से

मन मलिन होते हुए भी मीठी बातें कर रहा
आ गया है उसको दुनिया से निभाने का हुनर

ज़रा सी दाद देने में भी उन पर ज़ोर पड़ता है
यहाँ इक शे‘र कहने में पसीने छूट जाते हैं

मेरी बिसात क्या कि मैं इक शे‘र कह सकूँ
होती है अपने आप ही आमद कभी कभी

ज़ह्न कि हांडी में मंदी आंच पर पकते हैं ये
शे‘र कूकर में नहीं तैयार होते दोस्तो

क़ाफ़िया पैमाई करने से ग़ज़ल होती नहीं
लाज़िमी है पेश करना एक अच्छा शेर भी

किसी भी नामचीं के साथ में तस्वीर खिंचवा कर
ज़माने में किसी को देर तक शुहरत नहीं मिलती

कुरेदो दिल के ज़ख़्मों को अजय अज्ञात तुम पहले
यँू ही पैदा नहीं होते हैं नाजुक शे‘र ग़ज़लों के ़

इसके आने की ख़बर हो जाएगी
वक़्त के पैरों में घुँघरू बांध दो

रास्ता दोनों तरफ जाता है ये
बस दिशा का बोध होना चाहिए

मैं इक अदना सा ख़ादिम हूँ ग़ज़ल का
मेरे अश्आर है ं पहचान मेरी

बंद होती जा रही है गुफ़्तगू
फ़ेसबुक से अब ख़बर मिलने लगी

ग़लतियाँ तो सब से होती हैं अजय
यह ज़रूरी है कि पश्चाताप हो

पड़ने लगी हैं झुर्रियां चेहरे पे अब मेरे
कुछ हो गए हैं ज़िंदगी के तज़रिबे मुझे

उलझा लेगा भोले-भाले लोगों को
घुंघराले अल्फ़ाज़ में लिक्खा शे‘र कोई

ऐसी खटास आपसी रिश्तों में आ गयी
ये जीभ मेरी मेरे ही दांतों ने काट ली

हर घडी कुछ सीखते रहते हैं हम
ज़िंदगी इक पाठशाला ही तो है

हिन्दी ने आ के उर्दू की जुल्फ़ें संवार दीं
हुस्नो जमाल और भी ग़ज़लों पे आ गया

न छाया चित्र बोलेगा न तेरा नाम बोलेगा
अजय दुनिया में बोलेगा तो तेरा काम बोलेगा

आपस में कैसे इनकी मुलाकात हो भला
जुगनू को दिन में ढूंढती फिरती हैं तितलियाँ

अंधेरों को मिटाने का इरादा हम भी रखते हैं
कि हम जुगनू हैं थोड़ा सा उजाला हम भी रखते हैं

अगर मौक़ा मिला हम को ज़माने को दिखा देंगे
हवा का रुख़ बदलने का कलेजा हम भी रखते हैं

हमारे हाथ में भी है नए फीचर का मोबाइल
अजय देखो तो मुट्ठी में ज़माना हम भी रखते हैं