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मुतफ़र्रिक़ अशआर / ज़ाहिद अबरोल
Kavita Kosh से
वो और लोगों की हो कि अपनी, हुकूमतों में लिहाज़ कैसा
हमारा मज़हब मुख़ाल्फ़त है, यही तो की है यही करेंगे
ज़िन्दगी की बांहों में, झूलते हुए “ज़ाहिद”
ख़्वाब देखते हैं हम, टूटते सितारों का
दे गया मुझको कितनी सौग़ातें
रोज़ वो इक न इक बहाने से
कितने बारीक हो गए रस्ते
टलने वाले भी हादिसे न टलें
रौशन है जिसके नूर से दिल आप का हुज़ूर
हम भी उस आफ़ताब के बेहद क़रीब हैं
वो लाख अपना ख़ून बहायें ग़ैर ही समझे जायेंगे
अपने बच्चे ख़ून भी चूसें अपने ही कहलायेंगे
हम किस युग में पैदा हुए हैं
लोग अंधे हैं या बहरे हैं
शब्दार्थ
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