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मुसकान के रंग / महेन्द्र भटनागर

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दुनिया के जिगर से
जो उट्ठा था धुआँ
अब दहकते हुए शोलों में
बदल गया !
:
आयी थी जो आवाज़ कि पहले
अब उसका हर उतार-चढ़ाव
सब साज़ नया !
:
दिखता था
समुन्दर की जो छाती पर !
‘भाटे’ का उतरता हुआ जल,
अब तेज़ बड़ी लहरों में
पलट गया
बीत चुका
गुज़रा हुआ कल !
:
चेहरे पर थी जो
मूक मुसीबत की शिक़न
लाखों अपमानों की जलन,
:
अब मुसकान के रंगों की चमक
रोशन जिससे उन्मुक्त-गगन !